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धर्म-कर्म-रहत्य कर्म खराव है अर्थात् अधिकांश लोग कुत्सित कर्म करते हैं अथवा पूर्व में किये कुत्सित समूह-कर्म के फल की उत्पत्ति का ठीक समय आ गया है तो उस कुत्सित लमूह-कर्म का प्रभाव
और परिणाम उस पर भी किंचित् पड़ेगा, क्योंकि--जैसा कि धर्म के प्रकरण में दिखलाया गया है-मनुष्य मात्र ही नहीं किन्तु विश्व मात्र आत्मदृष्टि से एक है। अतएव प्रत्येक का यह परम कर्तव्य है कि कदापि निन्दित भावना अथवा कर्म की उत्पत्ति न करे, क्योंकि इससे उसकी हानि के सिवा विश्व भर की हानि होती है। इसी प्रकार प्रत्येक को धर्म और विहित कर्म कासम्पादन अवश्य करना चाहिए, क्योंकि इससे वह अपना ही उपकार नहीं करता बल्कि विश्व मात्र का उपकार करता है जो उसका परम कर्तव्य है। यही सिद्धान्त साधारण धर्म की भित्ति है। इस प्रकार कर्म को व्यापक समझ सदा विहित
और युक्त कर्म के सम्पादन में रत रहना चाहिए, कदापि अविहित और अयुक्त कर्म नहीं करना चाहिए, क्योंकि परिणाम विश्व मात्र पर पड़ता है। लिखा है
अकत्त व्यं न कर्तव्यं प्राणः कण्ठगतैरपि । कत्तव्यमेव कर्तव्यमिति धर्मविदा चिद्धः ॥ ८॥
गरुडपुराण अ. ३२. जो करने योग्य कर्म नहीं है उसको कण्ठ में प्राण आने पर भी नहीं करना चाहिए किन्तु केवल कर्तव्य कर्म ही करना चाहिए, यही धर्माचार्यों का कथन है।