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________________ कर्म की अष्टता १३१ अवश्य होगी। परिणाम यह होगा कि दुष्ट स्वभाव अर्थात् दुष्ट मानसिक मूर्ति की शक्ति का, पुष्टि न मिलने के कारण, हास होगा । दुष्ट भावना के विरुद्ध उसके ठीक प्रतिकूल उत्तम भावना के सोचने में प्रवृत्त होना चाहिए जो भावना और उसकी मानसिक मूर्ति दुष्ट क्षीण-स्वभाव और मूर्ति का लोप कर देगी। क्योंकि प्रबल दुष्ट मानसिक मूर्ति का नाश करना कठिन है, अतएव कदापि बार बार दुष्ट भावना को सोचकर उसको प्रबल नहीं करना चाहिए । ऐसे ही उत्तम भावना के सोचने में प्रवृत्तं होने से उत्तम मानसिक मूर्ति बनती है जो उस भावना के बार बार सोचने से और तद्वत् कर्म करने से पुष्ट हो जाती है और तब फिर उसी भावना और कर्म की और उस पुरुष की रुचि स्वभावतः जाती है । 1 इस दृष्टि से कर्म दो प्रकार के हैं। एक व्यक्तिगत और दूसरा समूह - कर्म । व्यक्तिगत वह है जिसका प्रभाव उसी व्यक्ति पर पड़ता है जो कि उसका कर्त्ता है । दूसरा समूहकर्म वह है जो सब लोगों के कर्म का एकत्र समूह है जिसका प्रभाव सब पर पड़ता है और सबको उसके फल को घोड़ा थोड़ा भोगना पड़ता है । युर्गों का आना इसी समूहकर्म का फल है । -जैसे व्यापक उत्पातसंक्रामक भूकम्प, रोग, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, अग्नि-भय, जल की बाढ़, महर्घता आदि भी समूह कर्म के फल हैं जिनसे अनेकों को कष्ट होते हैं। यदि कोई व्यक्ति अच्छा है किन्तु उस समय का समूह 1 -
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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