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धर्म-कर्म-रहस्य 'नहीं होते किन्तु विश्व भर की हानि और लाभ होते हैं। उसी प्रकार दूसरे की भावना और कर्म से भी उस कर्ता की समान भावना के कारण हानि और लाभ होते हैं। इस प्रकार दुष्ट भावना अथवा दुष्ट कर्म करके कर्ता केवल अपनी ही हानि नहीं करता है किन्तु विश्व भर की हानि करता है। इसी प्रकार शुभ भावना और कर्म करके अपना और विश्व भर का उपकार करता है। यही कारण है कि दुःसङ्गति अत्यन्त हानिप्रद और सत्सगति बड़ी लाभदायक कही गई है और ऐसा ही देखने में भी प्राता है। किसी दुर्जन के संसर्ग.में पड़ने से उस दुर्जन की प्रवल दुष्ट मानसिक मूर्ति कुसंसर्ग में पड़नेवाले के खल्प दुष्ट खभाव में संयुक्त होकर उसकी वृद्धि कर देती है। सत्सङ्गति में पड़ने से सज्जन की सात्विक मानसिक मूर्ति सत्सङ्गो के स्वल्प सात्विक खभाव की भी वृद्धि करती है । इस कारण हम लोगों . को किसी भावना अथवा कर्म के करने में बहुत सावधान रहना चाहिए ताकि कदापि कोई दुष्ट भावना अथवा कर्म न हो पड़े, क्योंकि इससे अपनी हानि के सिवा दूसरों की भी हानि होती है। अतएव दुष्ट भावना और कर्म के रोकने में निरन्तर अध्यवसाय करना चाहिए। किन्तु यदि कोई विशेष सावधान होकर दुष्ट भावना और दुष्ट कर्म के रोकने की इच्छा और चेष्टा में कृतकार्य न हो तो भी यत्न को नहीं त्यागे अर्थात् जहाँ तक हो सके वहाँ तक दुष्ट भावना और कर्म के रोकने की चेष्टा करता ही जाय और तब उक्त भावना.की उत्पत्ति में कमी