________________
१२६
पुष्ट मूर्ति सवाध्य कर अकर्ता को बारा
कर्म की अदृष्टता सात्विक देव करते हैं उस) का भी यही नियम है कि दूसरों के उत्तम स्वभाव की वृद्धि करती और स्वयं भी समान की अन्य सात्विक मूर्ति से संयुक्त हो पुष्ट होती है। जैसे यदि कोई क्रोध की प्रबल भावना अथवा कर्म द्वारा मानसिक मूर्ति उत्पन्न करेगा तो प्रथम वह कर्ता को बार बार क्रोध करने के लिये वाध्य कर अधिक पुष्ट होगी और ऐसी पुष्ट मूर्वि दूसरे द्वारा उत्पादित क्रोध की कमजोर मूर्ति के साथ संयुक्त होकर उसकी पुष्टि करेगी और तब वह पुष्ट मूर्ति का विशेष प्रभाव उसके कर्ता पर पड़ेगा। तब उस दूसरे कर्ता के क्रोध की मात्रा अधिक बढ़ जायगी और वह क्रोध के आवेग में अधिक दुष्ट कर्म करेगा। इसी प्रकार दूसरे द्वारा उत्पादित प्रबल क्रोध-सम्बन्धी मानसिक मूर्ति अन्य कर्ता की क्रोध-सम्बन्धी मानसिक मूर्ति में संयुक्त होकर इसकी प्रबलता बढ़ावेगी जिसके कारण उक्त स्वभाव और ताश कर्म की उसमें वृद्धि होगी। यही नियम उत्तम मानसिक मूर्ति का भी है। किन्तुं जिसमें कोई विकार नहीं है अथवा जो अशुभ भावना अथवा कर्म नहीं करता, उस पर कोई अशुभ मानसिक मूर्ति आक्रमण नहीं कर सकती, क्योंकि समान ही पर इनका प्रभाव पड़ता है, अन्य पर नहीं। चूं कि सृष्टि मात्र में आत्मसृष्टि से एकता है (जैसा कि धर्म के प्रकरण में दिखलाया गया है। इसी कारण जो कुछ भावना अथवा कर्म किया जाता है उससे केवल उसके कर्ता की ही हानि अथवा लाभ