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________________ १२८ धर्म-कर्म - रहस्य की चाह रखने पर भी मनुष्य छोड़ नहीं सकता है। तब ऐसा हो जाता है कि अनिच्छा रहने पर भी मानो कोई जबर्दस्ती उसको उस काम में प्रवृत्त करता है और वह इस प्रकार परवश है। गीता में अर्जुन के श्रीभगवान् से पूछने पर कि मनुष्य अनिच्छा रहने पर भी किस कारण द्वारा प्रेरित होकर पाप करता है ( ३-३७), उत्तर मिला कि काम और क्रोध वहुत्त भक्षण करनेवाले और बहुत बड़े पापात्मक हैं और वे ज्ञान को ढक देते हैं (३-३७ और ३८) । इस प्रकार इन क्षुद्र देवताओं के संयोग से काम क्रोध आदि विकारों की भावना अथवा कर्म यथार्थ में भुवर्लोक में मानसिक मूर्ति धारण कर लेते हैं जो अपनी पुष्टि और जीवन के लिये कर्त्ता से उस प्रकार का कर्म वारंबार करवाकर पुष्टि पाते उक्त नानसिक मूर्त्ति अपने समान अन्य मनुष्य की उत्पादित समान मानसिक मूर्त्ति के साथ संयुक्त होकर उस मनुष्य के वैसे स्वभाव की भी वृद्धि कर देती है और तादृश कर्म के करने में उसको विशेष उत्तेजना देकर वह कर्म करवाती है जिसके लिये वह मनुष्य उत्तरदायी है जिसने अपने कर्म के कारण उस मूर्ति को उत्पन्न किया । इस प्रकार दूसरे द्वारा उत्पादित समान मानसिक मूर्ति समान स्वभाव के मनुष्य की मानसिक मूर्ति में समानता के कारण संयुक्त होकर उस मनुष्य के उक्त प्रकार के स्वभाव को भी वृद्धि करती है । सात्विक मानसिक मूर्ति (जो उत्तम भावना और कर्म से उत्पन्न होती है और जिसकी पुष्टि
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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