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कर्म की अदृष्टता यथार्थ में इस भूलोक, इसके बाद के भुवर्लोक और स्वर्लोक का आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध है और शक्ति का केन्द्र ऊपर के ही दोनों अन्तरिक्ष लोक हैं जिस शक्ति का कार्य यहाँ प्रकट होता है। इस प्रकार काम, क्रोध, द्वप, लोभ, मोह, मत्सर
आदि चित्त के विकारों की प्रबल भावना अथवा उनकी प्रेरणा से जो कर्म होते हैं उनका प्रभाव कर्ता के चित्त में पड़ने और भुवर्लोक में अङ्कित और चित्रित होने के सिवा उस कर्म के समान स्वभाव के तमोगुणी रजोगुणी तुद्र देवगण भी उस कर्म द्वारा आकर्षित होते हैं। नियम है कि दो समान एक दूसरे को आकर्पित करते हैं और आकर्पित होकर संयुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार तामसिक राजसिक कर्म द्वारा तामसिक राजसिक तुद्र देवगण आकर्षित होकर कर्ता के साथ उक्त कर्म के कारण संयुक्त हो जाते हैं और उस कर्म का रस भोगते हैं। वे तब से कर्ता पर ऐसा प्रभाव डालते हैं कि वह वैसी भावना अथवा कर्म अधिकता से करे जिसके करने से उनको रस मिलता रहता है। इस प्रकार उस कर्म को अनेक बार करने से इन क्षुद्र देवताओं का सम्बन्ध पुष्ट हो जाता है और पीछे वह उनके प्रभाव के कारण उस कर्म को परवश की भाँति करता है। यह भी स्वभाव का एक मुख्य कारण है। इसी कारण किसी खराब कर्म के करने में जो पहले कुछ रुकावट मालूम होती है वह बार बार करने पर चली जाती है और फिर पीछे उस दुष्ट कर्म के दुष्ट परिणाम को भोगकर छोड़ने