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धर्म स्वाभाविक है
एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते । एकोऽनुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम् ॥ २४० ॥ मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलेोष्टसमं क्षितौ । विमुखा वान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति ॥ २४९ ॥ तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्य' सञ्चिनुयाच्छनैः । धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम् ||२४२ || मनुस्मृति, अध्याय ४
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धर्म ही केवल मनुष्य का एकमात्र मित्र है, क्योंकि मरने पर वही मृत व्यक्ति के साथ जाता है, और दूसरी सब वस्तुएँ शरीर के साथ नाश हो जाती हैं। चींटी जैसे मिट्टी का ढेर प्रस्तुत करती है उसी प्रकार, किसी प्राणी को दुःख न देकर परलोक में सहायता पाने के निमित्त थोड़ा थोड़ा करके भी, धर्म इकट्ठा करना चाहिए ॥ २३८ ॥ पिता, माता, स्त्री, पुत्र और जाति के लोग इनमें कोई भी परलोक में सहायता नहीं करते, वहाँ केवल धर्म ही सहायता करता है ॥ २३८ ॥ प्राणी अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही अपने किये हुए पाप के फल को भोगता है ॥२४० ॥ जब बान्धवगण मृत शरीर को काठ और ढेले की भाँति पृथ्वीतल में छोड़कर मुँह फेर के घर की ओर चलते हैं उस समय एक धर्म ही मृतव्यक्ति का साथ देता है ।। २४१ ॥ धर्म की सहायता से मनुष्य दुस्तर नरकादि के दुःख से छुटकारा