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धर्म स्वाभाविक है , अर्जुन और माद्री के पुत्रों को मेरे साथ त्याग सकते हैं किन्तु धर्म
को नहीं त्यागेंगे। धन की प्राप्ति धर्म से होती है और उस धन के दान (सद्व्यय) से धर्म होता है, अतएव मेघ और समुद्र के समान दोनों में परस्पर सम्बन्ध है । इन्द्रिय-निग्रह, क्षमा, धैर्य, तेज, सन्तोप, सत्य बोलना, पाप से स्वाभाविक निवृत्ति, अहिंसा, सदाचार, कार्यपटुताये सुख देनेवाली हैं। और भी लिखा है
न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत् । अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम् ॥१७॥ नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव । शनैरावर्तमानस्तु कर्तुमूलानि कुन्तति ॥१७२॥ यदि नात्मनि पुत्रेषु न चेत्पुत्रेषु नप्तृपु । न त्वेव तु कृतोऽधर्मः कतुर्भवति निष्फलः ॥१७३॥ अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति । ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति ॥१७४॥
मनुस्मृति अ०४ धर्म करने से क्लेश पाने पर भी मन को अधर्माचरण में प्रवृत्त नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा देखा जाता है कि अधर्मियों का उनके पाप के कारण शीघ्र नाश हो जाता है॥१७१॥ जैसे पृथ्वी में वीज बोने से शीघ्र ही उसमें फल नहीं होता, वैसे ही संसार में अधर्म किये जाने पर भी शीघ्र फल नहीं देता, किन्तु धीरे धीरे जव उसके फल के होने का समय