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धर्म-कर्म-रहस्य. भाव का उनमें आविर्भाव नहीं होता और उसके कारण यथार्थ अभ्युदय का लाभ नहीं मिलता, जो केवल यथार्थ धर्म के आचरण से ही होता है और धर्म के विरुद्ध आचरण करके केवल उपधर्म से कदापि होने को नहीं। महाभारत का वचन है
धर्मार्थमेव ते राज्यं धर्मार्थं जीवितं च ते । ब्राह्मणा गुरवश्चैव जानन्त्यपि च देवताः ॥ भीमसेनाजु नौ चेमो माद्रेयौ च मया सह ।। त्यजेस्त्वमिति मे बुद्धिर्न तु धर्म परित्यजेः ॥
वनपर्व अ. ३० सर्वथा धर्ममूलोऽर्थों धर्मश्चार्थपरिग्रहः । इतरेतरयोनी तो विद्धि मेघोदधी यथा ॥
तत्रैव अ. ३३ अहिंसा सत्यवचन सर्वभूतेषु चार्जवम् । क्षमा चैव प्रसादश्च यस्यैते स सुखी भवेत् ॥ दमः क्षमा धृतिस्तेजः सन्तोषः सत्यवादिता । हीरहिंसाऽव्यसनिता दाक्ष्यं चेति सुखावहाः ॥
शान्तिपर्व, मोक्ष अ० ४२ (वनवास के समय में द्रौपदी ने राजा युधिष्ठिर से कहा कि हे राजा!) आपका राज्य और जीवन धर्म के लिये है जिसको ब्राह्मण, गुरु और देवता जानते हैं। मेरी बुद्धि में आप भीम,