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धर्म स्वाभाविक है पर निर्भर नहीं हैं किन्तु मनुष्यमात्र की स्वाभाविक आन्तरिक बुद्धि इनकी सत्यता और आवश्यकता की साक्षी है और इनका अनुमोदन करती है, और इस कारण ये परम मान्य हैं। मनुष्य के लिये ये धर्म स्वाभाविक हैं, इस कारण इनका आचरण करना मनुष्य का परम कर्तव्य है और इसी लिये इसकी उत्तमता समझने की स्वाभाविक बुद्धि मनुष्य में है। प्रत्येक मनुष्य की आन्तरिक बुद्धि कहती है कि सत्य बोलना धर्म और झूठ बोलना पाप है और इसके मानने के लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। यही दशा अन्य धर्म के लक्षण की भी है।
सब प्राणियों में एक परमात्मा का वास होना और यह विश्व उन्हीं परम कारण से निःसृत, अतएव उन्हीं का अंश अथवा विराट-शरीर होना और वे ही सबके एक मात्र आश्रय और लक्ष्य हैं, यही मुख्यकर इन धर्मों का आधार है और इस सिद्धान्त से ये धर्म स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। यदि दूसरे भी अपने समान आत्मा ही हैं और सब एक ही परमात्मा के अंश हैं और उस दृष्टि से सबों के साथ आत्मिक एकता है तो हिंसा, स्तेय, असत्य आदि द्वारा दूसरे की हानि करनी मानो अपनी हानि करनी है और परमात्मा जो सबके आत्मा हैं उनके विरुद्ध कर्म है, अतएव महाअधर्म है।
आजकल धर्माभिमानी लोग भी इन धर्मों के आचरण को परमावश्यक नहीं मान, इनकी प्राप्ति के लिये विशेष यत्न नहीं कर, उपधर्म की ओर लक्ष्य रखते हैं जिसके कारण धर्म