________________
११०
धर्म-कर्म-रहस्य देता है कि जो न करने योग्य है उसको करवा देता है। अतएव क्रोध परम प्रवल शत्रु और अधर्म का मूल है। गीता में काम. क्रोध और लोभ नरक के तीन द्वार बताये गये हैं। (अ० १६-२१)
क्रोधमूलो मनस्तापः क्रोधः संसारसाधनम् । धर्मक्षयकरः क्रोधस्तस्मात्तं परिवर्जयेत् ॥ ५३ ॥
वृहन्नारदीय पुराण अध्याय ३२ क्रोधः पाणहरः शत्रुः क्रोधो मित्रमुखो रिपुः । क्रोधो ह्यसिर्महातीक्ष्णः सर्व क्रोधोऽपकर्षति ॥
वाल्मीकीय रा०, उत्तर, अ० ३१ मन के ताप का क्रोध मूल है, क्रोध से संसारचक्र में पड़ना होता है और क्रोध धर्म का नाश करनेवाला है, अतएव क्रोध को त्यागना चाहिए। क्रोध प्राण का नाश करनेवाला शत्रु है और यह वनावटी मित्र वनकर शत्रु का काम करता है। यह बड़ा वीण खड्ग है और सव उत्तम गुणों का नाश करनेवाला है।
क्रोध मनुष्य का परम शत्रु है। इसकी उपमा चाण्डाल से भी दी गई है। लोगों को समझना चाहिए कि इस क्रोध शत्रु के प्रभाव में पड़कर जो काम किये जायेंगे वे महान् अनिष्टकारी होंगे। अतएव हम लोगों का कर्तव्य है कि प्रथम तो इस क्रोधरूपी परम शत्रु को अपने भीतर प्रगट नहीं होने दें जो "अहिंसा", "क्षमा" और