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अक्रोध
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भीष्म की प्रतिज्ञा है कि मैं त्रिलोक और देवताओं के राज्य को त्याग सकता हूँ और इससे अधिक का भी त्याग कर सकता हूँ किन्तु कदापि सत्य का त्याग नहीं कर सकता । युधिष्ठिर का वाक्य है कि राज्य, पुत्र, यश, धन ये सब सत्य की एक कला के भो तुल्य नहीं हैं । सत्य से सूर्य तेज. देते हैं, सत्य ही से अग्नि प्रज्वलित होती है, सत्य से ही वायु बहती है, सब कुछ सत्य के आधार पर है । सत्य से देवता, पितर और ब्राह्मण प्रसन्न होते हैं, सत्य परम धर्म है, अतएव सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए।
प्राजकल लोग समझते हैं कि सत्य का पालन सांसारिक कार्य के व्यवहार में नहीं हो सकता है; पालन करने से हानि होगी किन्तु यह नितान्त भूल है । सत्य के पालन से ही सांसारिक कार्यों में भी, अन्तिम परिणाम में, स्थायी लाभ अवश्य होता है और कदापि हानि नहीं हो सकती है. यद्यपि प्रमाद से हानि की सम्भावना समझी जाती है असत्य से तात्कालिक लाभ देखने में आता है किन्तु वह शीघ्र लुप्त हो जाता है । इसके पालन में दीर्घ धैर्य की आवश्यकता है ।
क्रोध
दसवाँ धर्म अक्रोध अर्थात् क्रोध नहीं करना है। विचार और बुद्धि को क्रोध इस प्रकार कलुषित और संकुचित कर