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________________ धर्म की प्रधानता निरहङ्कार रूपी शस्त्र से सुसज्जित रहने से होगा और दूसरे यदि वह कदापि प्रगट भी हो जाय तो उसको शत्रु समझ उसके आदेशों को कदापि नहीं माने और विचार में प्रवृत्त हो जायँ । सद्बुद्धि का आवाहन कर उनकी शरण, उपयुक्त परामर्श देने के लिये, हो जायें। ऐसा करने से क्रोध के दुष्ट परिणाम से बच सकते हैं। वैज्ञानिक-परीक्षा से देखा गया है कि क्रोधित मनुष्य का शरीर विषाक्त हो जाता है, यहाँ तक कि परीक्षा करने से उसके थूक में भी विष पाया गया है। उसके रुधिर, मांस सब विप से पूरित हो जाते हैं। इस प्रकार क्रोध शरीर और अन्तरात्मा दोनों की हानि करता है। अष्टाङ्ग योग के प्रथम और दूसरे चरण जो यम और नियम है वे भी इस दश धर्म के अन्तर्गत ही हैं। धर्म की प्रधानता नाश्रमः कारणं धर्मे क्रियमाणो भवेद्धि सः । अतो यदात्मनोऽपथ्यं परेषां न तदाचरेत् ॥ याज्ञवल्क्य स्मृति किसी धर्म के आचरण में कोई आश्रम कारण नहीं है, क्योंकि करने से सब आश्रमों में धर्म-प्राप्ति होती है। इस निमित्त जो अपने को हित न हो वह दूसरे को भी न करे।
SR No.010187
Book TitleDharm Karm Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndian Press Prayag
PublisherIndian Press
Publication Year1929
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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