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धर्म-कर्म - रहस्य
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से वह मनुष्य मानव समाज में रहने योग्य नहीं है । विद्याभ्यास का मुख्य तात्पर्य विद्या-शक्ति के लाभ से अविद्यान्धकार का नाश कर ब्रह्म की प्राप्ति करना है जिसके लिये यत्न करना परम धर्म है। अधिक वय हो जाने पर भी इस महत् उद्देश्य से विद्याध्ययन का अभ्यास प्रारम्भ करना चाहिए, क्योंकि वह संस्कार होकर आगे जन्म में बड़ी सहायता करेगा । महाभारत में लिखा है – “ गतेऽपि वयसि ग्राह्या विद्या सर्वात्मना बुधैः । यद्यपि स्यान्न फलदा सुलभा साऽन्यजन्मनि । " अधिक वयस होने पर भी बुद्धिमान् को विद्याभ्यास सब प्रकार से प्रारम्भ करना चाहिए, क्योंकि वर्तमान जन्म में फल न देने पर भी आगे के जन्म में वह सुलभ हो जायगा ।
सत्य
नवाँ धर्म सत्य है जिसका अर्थ यह है कि जो वस्तु प्रथवा क्रिया अथवा सङ्कल्प जैसा हो अथवा हुआ हो अथवा है अथवा होनेवाला हो उसको वैसा ही ठीक ठोक कहना, वर्णन करना और दूसरों को जताना, सोचना और इसके सम्बन्ध में ठीक वैसी ही क्रिया अपने जानते करना जिससे दूसरों को उसकी यथार्थता का आभास अथवा विश्वास अथवा ज्ञान हो । इसके विरुद्ध को असत्य कहते हैं ।
सत्य का स्वरूप यों वर्णित है—
सत्य भूतहितं प्रोक्तं नायथार्थाभिभाषणम् ।
याज्ञवल्क्य संहिता