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बालकों का ब्रह्मचर्य - १०३ क्रिया-कलाप और अनुभव के परिणाम को हृदयङ्गम करने से
और इनके द्वारा ज्ञानलाभ कर उसके अनुसार व्यवहार करने से प्राप्त होती है। यह भला बुरा समझने की कसौटो है।
विद्या आठवाँ धर्म विद्या है जिसका यथार्थ अर्थ ईश्वरसम्बन्धो अनुभवजन्य ज्ञान अर्थात् ब्रह्मविद्या की प्राप्ति और उसकी प्राप्ति के लिये विचक्षण सात्विकी बुद्धि की प्राप्ति करनी है। यह केवल शास्त्रज्ञान अथवा बुद्धि का निश्चयात्मक ज्ञान नहीं है। ब्रह्मविद्या की प्राप्ति से तापत्रय का अत्यन्त प्रभाव हो जाता है और फिर वे ा नहीं सकते। इसकी प्राप्ति होने पर अन्तष्टि खुलती है। .
चूंकि इस ब्रह्मविद्या की प्राप्ति के लिये वेदाभ्यास और शास्त्रज्ञान की आवश्यकता है, अतएव अक्षरारम्भ से लेकर उपनयन, वेदारम्भ आदि संस्कार, नित्यकर्म, विद्याध्ययन आदि सब इस विद्या-धर्म की साधना हैं। इस धर्म का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य को साक्षर होकर ब्रह्मविद्या की प्राप्ति के लिये ब्रह्मचर्य रख के अर्थात् इन्द्रिय-निग्रह करके उपयुक्त विद्याध्ययन करना आवश्यक है और इसका सम्पादन न करना अधर्म है। इसी कारण त्रिवर्ण द्विज और शूद्र के बालक के लिये भी बाल्यावस्था में विद्याध्ययन करना शास्त्रानुसार अवश्य कर्तव्य और धर्म है। इस प्रकार मनु-महाराज के आदेशानुसार प्रत्येक मनुष्य के लिये विद्याभ्यास अनिवार्य है जिसके न करने