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१०२ . धर्म-कर्म-रहस्य बीच में दृष्टि को स्थिर करना चाहिए।" पश्चिम-तान यों है"एक पाँव की एड़ी को गुदा और अण्डकोश के बीच के स्थान में जमाकर दूसरा पाँव सीधा.आगे रखना। स्मरण रहे कि जिस पग की एड़ी गुदा और अण्डकोश के वीच रही है उसके पाँव के तले से दूसरी जंघा पर अच्छे प्रकार दवाव आना चाहिए। तत्पश्चात् दोनों हाथों से उस फैले पाँव को पकड़ा कर उसी पाँव के घुटने पर सिर अथवा नाक लगाकर बैठे। फिर दहिने पाँव की एड़ी को नीचे दे वाँचा पग फैलाकर ऐसा ही सिर को झुकाना और फिर दोनों पाँवों को फैलाकर दोनों पाँवों की अँगुलियों को दोनों हाथों से पकड़कर अथवा केवल दोनों पाँव के अँगूठों को अपनी अपनी ओर के हाथ से पकड़ मस्तक को झुकाकर पैर में सटाना। इस प्रकार तीनों मिलकर एक अभ्यास हुआ। प्रारम्भ में सिर के झुकाने में और पग के स्पर्श करने में कठिनाई होगी किन्तु जितना सहज में झुक जाय उतना ही झुकाया जाय, अधिक नहीं। इस प्रकार शनैः शनैः ठीक हो जायगा। इस प्रकार कम से कम पाँच वार प्रातःकाल और सन्ध्या समय भी करना चाहिए।
धी . . सातवाँ धर्म धो अर्थान उत्तम बुद्धि है जिससे कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान होता है। यह धी-शक्ति सत्शास्त्रों के अनुशीलन करने से, उनके सिद्धान्त पर बारम्बार विचार करने से, शास्त्र के आदेश का पालन करने से, अपने और दूसरे के