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बालकों का ब्रह्मचर्य रक्षा की परमावश्यकता, महत्त्व और इसकी उपेक्षा अथवा क्षय से जो बड़ी विपत्ति और सर्वनाश होते हैं उनके सम्बन्ध में पूस निश्चय और विश्वास उत्पादन करवा देना चाहिए, क्योंकि वे प्रायः बाल्यावस्था में इन बातों से अनभिज्ञ रहते हैं और कुसंग और अज्ञान के कारण इस अनर्थकारी दुर्व्यसन के करने में प्रवृत्त हो जाते हैं। जब वे इनके दुष्परिणाम को भोगने लगते हैं तब तो शोक करते हैं किन्तु उससे तब क्या हो सकता है ? फिर ते सर्वनाश ही है। अतएव इसमें उपयुक्त ज्ञान प्रथम सीढ़ी है जिसके बाद वालक को वोर्यरक्षा के लिये दृढ़ सङ्कल्प करना चाहिए और उसे कभी भूलना नहीं चाहिए। सन्ध्योपासना, होम, जप, स्तोत्रपाठ, ध्यान, योग के आसन, सात्विक भोजन, सत्संगति आदि से उनको आवश्यक शक्ति मिलेगी जिससे वे वीर्य-रक्षा कर सकेंगे। प्रासन में सिद्धासन और पश्चिम-वान ( जिसको महामुद्रा भी कहते हैं) का अभ्यास प्रतिदिन नियत रूप से करना आवश्यक है । सिद्धासन यों है-“बाँये पाँव की एड़ी को गुदा और अण्डकोश के बीच के भाग में दृढ़ता के साथ दबा के रक्खे और दाहिने पाँव की एड़ी को इन्द्रिय के ऊपर के भाग में दृढ़ता से लगावे ।" "यही मुख्य आसन है जिसको लगाकर या तो कन्धा मस्तक को सीधा करके बैठना चाहिए और ऐसा करके ध्यान-जप करना चाहिए अथवा ठोड़ो हृदय के ऊपर कंठमूल में हृदय से थोड़ी दूर पर लगाकर स्थिर और सीधा. शरीर करके पलकों और आँखों को न हिलाते हुए भौहों के