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बालकों का ब्रह्मचर्य की कली को खोलने का यत्न करने से अथवा किसी अन्न अथवा फल को समय के पूर्व तोड़ने से वे जैसे नितान्त निकम्मे हो जाते हैं, वही परिणाम बालक-बालिका की बाल्यावस्था के किसी प्रकार के मैथुन का भी होता है। शारीरिक और मानसिक उन्नति के सिवा वीर्य-रक्षा पर नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति भी निर्भर है। इसी कारण मनु की आज्ञा है कि विद्यार्थी-ब्रह्मचारी कदापि वीर्यपात न करे, जिसके करने से उसका व्रत अर्थात् विद्याभ्यास आदि की योग्यता ही नष्ट हो जाती है क्योंकि वीर्य ही उसमें मुख्य साधन-सामग्री है। स्वप्न द्वारा भी आप से आप वीर्यपात होने पर उसकी पूर्ति सूर्यार्चन और मन्त्र के जप द्वारा, सूर्य की शक्ति को आकर्षण करके, कर लेना चाहिए। प्रमाण ये हैं
एकः शयीत सर्वत्र न रेतः स्कन्दयेत्कचित् । कामाद्धि स्कन्दयन् रेतो हिनस्ति व्रतमात्मनः॥१८॥ स्वप्ने सिक्त्वा ब्रह्मचारी द्विजः शुक्रमकामतः । स्नात्वार्कमर्चयित्वा त्रिः पुनर्मामित्यूचं जपेत् ॥१८१॥
मनु अ०२ ब्रह्मचारी सर्वत्र और सब अवस्थाओं में अकेला ही सोवे, कभी वीर्यपात न करे। जानकर वीर्य-क्षय करने से वह अपने व्रत से च्युत हो जाता है। यदि स्वप्न में ब्रह्मचारी का अनिच्छा से वीर्यपात हो तो वह स्नान करके सूर्य की अर्चना