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धर्म-कर्म-रहस्य semen."। कुछ विद्वानों का मत है कि ४० सेर उत्तम भोजन से १ सेर रक्त बनता है। १ सेर (८०तोला) रक्त से २ तोला वीर्य । बनता है। स्वाभाविक ऋतुकाल के एक सहवास में आधा तोला वीर्य नष्ट होता है। अनुचित, कुसमय ( छोटी अवस्था में, ऋतु से अन्य काल आदि में), दुर्वलता आदि में दुगुना चौगुना व्यय होता है। अस्वाभाविक वीर्य-पात में पचगुना सतगुना तक व्यय होता है। __इसी कारण शास्त्र में लेख है कि परस्त्रीगमन से आयु का' बहुत बड़ा क्षय होता है। मैथुन से वीर्य-क्षय के सिवा स्नायु-तन्तु आदि अवयवों पर बहुत बड़ा आघात पड़ता है, उनमें कितने मूर्छित हो जाते हैं और सव बलहीन हो जाते हैं। लिखा है- "कम्पः स्वेदः अमो सूर्छा भ्रमग्लानिर्वलक्षयः । राजयक्ष्मादिरोगाश्च भवेयुमैथुनोत्थिता:"-मैथुन से कम्प, पसीना, थकावट, मूर्छा, भ्रम, ग्लानि, बल का नाश और राजयक्ष्मादि रोग होते हैं। लगातार ऐसे क्ष्य का परिणाम रोग, शोक, कमजोरी, अकर्मण्यता, आलस्य को वृद्धि, प्रमाद, मोह, बुद्धि-भ्रान्ति, मेधा-स्मृति की अत्यन्त निर्वलता अथवा लोप, कायरपना, दरिद्रता, अनमनस्कता और चञ्चलता, भीरता, निरुद्यमता, घोर विक्षेप आदि दुर्गुण और दोष होते हैं और इनके कारण वह व्यक्ति जीते हुए भी मृतक के तुल्य वन जाता है, अनेक पागल हो जाते हैं और भयानक रोग और अकाल मृत्यु तो इसमें अवश्यम्भावी हैं। जैसे कुसमय में पुष्प