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धर्म-कर्म - रहस्य
इन्द्रियों की अपने कार्यों में पटुता, ये सब गुण प्राप्त होते हैं । ओज, सौम्य, स्निग्ध, श्वेत, शीत, स्थिर, मधुर, स्वच्छ, मृदु, चिकना और प्राणों का उत्तम आधार है। इससे शरीर के अवयव व्याप्त रहते हैं और इसके नाश से नष्ट होते हैं । यह आज वीर्य ही का रूपान्तर है जिसकी वृद्धि से इसकी वृद्धि होती है और हास से हास होता है । वाग्भट्ट का वचन है
मनुष्य के शरीर
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श्रजश्च तेजा धातूनां शुक्रान्तानां परं स्मृतम् । हृदयस्थमपि व्यापि देहस्थितिनिबन्धनम् ॥ यस्य प्रवृद्धौ देहस्य तुष्टि पुष्टिवलोदयाः । यन्नाशे नियतो नाशेो यस्मिंस्तिष्ठति जीवनम् ॥ निष्पाद्यन्ते यतो भावा विविधा देहसंश्रयाः । उत्साह-प्रतिभा-धैर्य-लावण्य - सुकुमारताः ॥ पृथक् स्वप्रसृतं प्रोक्तमोज मस्तिष्करेतसाम् । द्वाञ्जली तु स्तन्यस्य चत्त्वारो रजसत्रियाः ॥
रस से लेकर वीर्य पर्यन्त सातों धातु के तेज को ओज कहते हैं जो विशेष कर हृदय में रहता है किन्तु है समस्त शरीर में व्याप्त । ओज की वृद्धि से ही तुष्टि, पुष्टि और बल की उत्पत्ति होती है और उसके नाश से मृत्यु होती है । यह आज जीवन का आधार होने से शरीर के नाना प्रकार के गुण-- जैसे उत्साह, प्रतिभा, धैर्य, लावण्य, और सुकुमारता