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धर्म-कर्म-रहस्य भेदाः खियः समस्ताः सकला जगत्सु' अर्थात् हे देवी! सम्पूर्ण विद्या आपकी कला है और सकल संसार की स्त्रियाँ भी प्रापही का रूप हैं। महाभारत अनुशासन पर्व अ० १४४ का वचन है-"मातृवत्स्वसृपच्चैव नित्यं दुहित्वञ्च ये। परदारेषु वर्तन्ते ते नराः स्वर्गगामिना"। जो नित्य दूसरे की स्त्री को माता, बहन अथवा कन्या समान देखते हैं वे ही स्वर्ग में जाते हैं। वो को देखते ही माता का पूज्य-भाव चित्त में आना चाहिए न कि काम-भाव; यह परमावश्यक है।
स्त्री को पुरुष मात्र को नारायण का रूप समझना चाहिए और पिता, भाई, पुत्र के समान भाव रखना चाहिए । स्त्री के लिये इन्द्रिय-निग्रह का सुलभ उपाय पातिव्रत्य धर्म है जिसका मुख्य भाव यह है कि स्त्री अपने पुरुष को ही एकमात्र अपना परम इष्टदेव समझकर उन्हीं में अनुरक्त रहे और सिवा अपने पुरुष के दूसरे किसी को पुरुष ही नहीं समझे। केवल इस एक धर्म के पालन से उनका सव प्रकार का कल्याण सुलभ में सम्पन्न हो जाता है, अन्य कठिन साधनाओं का सम्पादन करना उनके लिये आवश्यक नहीं है । इस विषय में मनु का वचन यों है
विशीलः कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जितः । उपचर्यः स्त्रिया साव्या सतत देववत्पतिः ॥१५४॥ नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषणम् । पति शुश्रूषते येन तेन स्वर्ग महीयते ॥१५५॥