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जननेन्द्रिय - निग्रह
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इस प्रकार ब्रह्मचर्य की रक्षा करने से कोई निःसन्तान न होगा, जैसा कि प्रायः आजकल की दशा है । सन्तान हृष्ट-पुष्ट, मेधावी, चरित्रवान, कार्यपटु, धार्मिक आदि सद्गुणों से विभूषित और दीर्घायु होगी, कदापि अकाल-मृत्यु के पब्जे में न पड़ेगी, जैसा कि आजकल देखा जाता है और माता पिता भी नीरोग, बलिष्ठ और दीर्घायु आदि होंगे । ब्रह्मचर्य सव प्रकार की उन्नति और अभ्युदय का मूल कारण है जिसकी अवहेला ही भारतवर्ष की वर्तमान अधोगति का मुख्य कारण है और उसकी रक्षा से प्राचीन गौरव, श्री और विभूति का फिर प्रादुर्भाव होगा । आजकल जो समाज में अनेक प्रकार की व्याधि, अल्पायुपना, बलहीनता, धैर्य, उत्साह और कार्यपटुता का प्रभाव, दरिद्रता, मूर्खता, प्रज्ञता, लोलुपता, लम्पटता, आपस का वैर-विरोध, प्रालस्य, प्रमाद, अदूरदर्शिता आदि दुर्गुण सर्वत्र प्रचुर रूप में देखे जाते हैं उनका मुख्य कारण ब्रह्मचर्य का नाश है और इसकी रक्षा से स्वास्थ्य, दीर्घायुपना, समृद्धि, ज्ञान, निर्भीकता, उत्साह, कार्यपटुता, धैर्य, शौर्य, साहस, शम, दम, विचार आदि सद्गुणों का समाज में अवश्य विकास होगा और दुःख दारिद्रा की कमी होगी ।
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इस महाप्रवल कुत्सित काम-वासना के दमन के लिये आन्तरिक मनोभाव की शुद्धि की आवश्यकता है । पुरुष को त्रीमात्र को आदि माता श्रीभगवती का अंश और रूप समझना चाहिए। दुर्गा सप्तशती का वचन है "विद्याः समस्तास्तव देवि !