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जीवन में उतरे बिना, धर्म न सम्यक् होय। काया, वाणी, चित्त के, कर्म न निर्मल होय ॥
बोले गर्व गुमान से, मेरा सम्प्रदाय को समझता, धर्म
धर्म महान। मूढ़ नादान ।
रूढ़ि और पाखंड के, मिथ्या सारे कर्म । बिना कर्म सम्यक् हुए, सम्यक् होय न धर्म ॥
भिन्न मतों की मान्यता, दर्शन के सिद्धान्त । धर्म छुटा, उलझन बढ़ी, सभी हो गए भ्रान्त ॥
तत्त्वों के व्याख्यान• में, गई जिन्दगी बीत । कोरे बुद्धि किलोल से, हुआ न चित्त पुनीत ॥
सम्यक् दर्शन के बिना, सम्यक् ज्ञान न होय । बिन दर्शन बिन ज्ञान के, सम्यक् चरित न होय ॥