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सम्यक् धर्म
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के किसी समझदार आदमी ने कहा है धर्म अफीम का नशा है। जो धर्म नहीं है उसे धर्म मानकर जीने में अफीम का ही नहीं, बल्कि उससे भी बड़ा नशा है । अफीम का नशा तो समय पाकर उतर जाता है, परन्तु इस मिथ्या धर्म के नशे में डूबा हुआ व्यक्ति सारा जीवन बेहोशी में बिता देता है। नशा उतरने का नाम नहीं लेता। रोज ब रोज तेज हुए जाता है । ___अपना तथा सबका सही मंगल चाहने वाले व्यक्ति को इस नशीले खतरे से बचना चाहिए और यह भलीभांति समझ लेना चाहिए कि धर्म की चरम परिणति, उसका अन्तिम लक्ष्य, उसका एकमात्र उद्देश्य उसे जीवन में उतारने में है। जो धर्म पढ़ा-सुना गया, सोचा-समझा गया; पर धारण नहीं किया गया वह सम्यक नहीं है, परिपूर्ण नहीं है, अभी कच्चा है। कच्चे घड़े के सहारे नदी पार करनी खतरनाक है। उसे पकाएं। हजार कठिनाइयों के बावजूद भी उसे धारण करने के अभ्यास को ही महत्त्व दें। कहीं ऐसा न हो जाय कि अभ्यास के रास्ते कोई मील का पत्थर हमें रोक ले, कोई मृग-मरीचिका हमें भ्रांत कर दे और हमारी प्रगति रुक जाय । जिस धर्म को हम धर्म मान रहे हैं वह सम्यक् है अथवा मिथ्या, इस हकीकत को बार-बार परखते रहें और परखने का एकमात्र तरीका यही है कि धर्म जीवन में उतर रहा है या नहीं। हमारे दैनिक व्यवहार में आ रहा है या नहीं ? हमारा भला इसी में है कि जब हम देखें हमारे जीवन में धर्म नहीं उतर रहा है तो भले ही हम ऐसी वेश-भूषा धारण करते हैं या वैसी, ऐसे क्रियाकांड करते हैं या वैसे, इस संप्रदाय में दीक्षित हैं या उसमें, ऐसी दार्शनिक मान्यता मानते हैं या वैसी, आत्मवादी हैं या अनात्मवादी, ईश्वरवादी हैं या अनीश्वरवादी, द्वैतवादी हैं या अद्वैतवादी; हम इस बात को स्वीकारते हुए जीएं कि हम धर्मवान नहीं हैं, कदापि नहीं हैं। जीवन में उतरे तो ही धर्म है, वरना धोखा है। हम महज तर्क, श्रद्धा, रूढ़िपालन, और दार्शनिक मान्यता के स्तर पर ही धर्म को स्वीकार करके न रह जायँ, बल्कि वास्तविकता के स्तर पर उसे जीवन में उतारें तो ही धर्म सम्यक् है, तो ही कल्याणकारी है, तो ही मंगलकारी है।