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१७ सत्य ही धर्म है
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सत्य के अतिरिक्त धर्म की और क्या व्याख्या हो सकती है ? सत्य ही धर्म है, असत्य अधर्म । यहाँ सत्य का अर्थ केवल वाणी की सच्चाई ही नहीं, बल्कि धर्म शब्द की भाँति इसका भी वही व्यापक अर्थ है—याने स्वभाव, गुण, नियम, विधान । प्रकृति के अपने गुण-स्वभाव हैं, नियम-विधान हैं । उन नियम-विधानों की, उन धर्मों की सच्चाई से सारा सजीव, निर्जीव चराचर विश्व बंधा हुआ है । इस व्यापक अर्थ में सत्य और धर्म पर्यायवाची शब्द हैं ।
प्रकृति के स्वभाव की सच्चाई हम जितनी-जितनी समझें और स्वीकारें उतने-उतने धर्म को ही स्वीकारते हैं। सच्चाई तीन प्रकार से स्वीकारी जाती है। स्वीकारने का पहला कदम श्रद्धा की भूमिका से आरम्भ होता है। किसी बुद्ध ने, ज्ञानी ने अपने बोधि-ज्ञान द्वारा मिली इस सच्चाई को शब्दों में व्यक्त किया। हमारे मन में उस महापुरुष के प्रति श्रद्धा जागी और हमने उसके शब्दों को स्वीकार किया। यह शब्द-सत्य को स्वीकारना हुआ। परन्तु शब्द सत्य में सच्चाई की परिपूर्णता नहीं हुआ करती। जब किसी अनुभूतिजन्य ज्ञान को शब्दों पर उतारा जाता है, याने जब कोई सत्यद्रष्टा, ऋतद्रष्टा ऋषि शब्द स्रष्टा बनता है तो सत्य का कुछ अंश नष्ट हो ही जाता है। इसलिए शब्दसत्य आंशिक सत्य ही होता है। क्योकि शब्द और भाषा की अपनी सीमाएँ हैं । उन्नत से उन्नत भाषा भी आन्तरिक अनुभूतियों को स्पष्टतया व्यक्त कर सकने में असमर्थ रहती है और फिर सत्य शोधकों की कुछ अनुभूतियाँ ऐसी हैं जो वर्णनातीत होती हैं। शब्दों द्वारा उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। उनके बारे में नेति नेति ही कहा जाता है। कहने वाला केवल इतना ही कहकर रह जाता है कि ऐसा तो नहीं है, ऐसा तो नहीं ही है। तीन