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समता धर्म
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समता से भी तन्मयता आती है । परम सुख प्राप्त होता है । समता का सुख संसार के सारे सुखों से परे है, श्रेष्ठ है।
समता ही स्वस्थता है । मन की समता नष्ट होती है तो नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । मानसिक भी और परिणामतः शारीरिक भी । समतापूर्ण जीवन जीने वाला कलावन्त व्यक्ति ही स्वस्थ जीवन जीता है। समतामय जीवन जीने वाले का अहंभाव, आत्मभाव नष्ट होता है। वह अहंता-रहित अनात्मभाव का मंगल जीवन जीता है । 'मैं' और 'तू' का विषमताभरा एकांतीय एकपक्षीय दृष्टिकोण टूटता है। समता-समन्वय का अनेकान्तीय-अनेकपक्षीय दृष्टिकोण पनपता है । विषमता आसक्ति की ओर झुकाती है । आसक्ति अतियों की ओर झुकाती है । और अतियों की ओर झुक जाने के कारण ही भिन्नभिन्न प्रकार के दृष्टिकोण उत्पन्न होने लगते हैं । "केवल मेरी मुक्ति हो जाय, बाकी समाज भले जहन्नुम में जायँ । यह पुत्र, कलत्र, भाई, बन्धु सब बन्धन है । मुझे इनसे क्या लेना देना ? मैं कैसे अपनी मुक्ति साध लू ? इनके भलेबुरे से मुझे कोई लेन-देन नहीं।"-ऐसा सोचनेवाला व्यक्ति अतियों के एक अन्त में उलझा रहता है। दूसरी ओर केवल “मैं” और 'मेरे' परिवार की सीमित परिधि में आकंठ डूबा हुआ व्यक्ति अतियों के दूसरे अन्त में उलझा रहता है । समता धर्म मध्यम मार्ग का धर्म है । समता धर्म आत्म मंगल और परमंगल के समन्वय सामंजस्य का धर्म है। व्यक्ति जंगल के पेड़-पौधों की तरह स्थावर नहीं है। जंगम है, चलता-फिरता है और अन्य अनेक लोगों से उसका सम्पर्क, सम्बन्ध बना रहता है आत्म-शोधन के लिए कुछ काल एकांत वास करना और अन्तर्मुखी होना आवश्यक व कल्याणकारी है । परन्तु इस प्रकार शोधे हुए मन का बाह्य जगत में सम्यक् प्रयोग होने पर ही धर्म पुष्ट होता है।
"मैं" के संकुचित बिन्दु से चिपके रहने के कारण ही दृष्टि धूमिल हो जाती है। कर्मसिद्धान्त की वैज्ञानिकता स्पष्ट समझ में नहीं आती । आसक्तिजन्य अतियों की ओर झुक जाता है और यह मानने लगता है कि हर व्यक्ति अपने पूर्व कर्मों से ही प्रभावित होता है। औरों के कर्मों से उसे कुछ भी लेनादेना नहीं । जबकि सच्चाई यह है कि हर व्यक्ति अपने कर्मों से तो प्रभावित होता ही है, परन्तु सारे समाज के कर्मों से भी कम प्रभावित नहीं होता।