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धर्म : जीवन जीने की कला
शुद्ध क्रिया होती है। प्रतिक्रिया नहीं। इसलिए कल्याणकारी होती है। अमंगलकारी नहीं।
भीतर चित्तधारा में उठने वाली सुखद-दुखद संवेदनाओं के प्रति पूर्ण समता का भाव आने लगता है तो बाह्य जीवन में सहज समता प्रकट होने लगती है । बाह्य जीवन-जगत की सारी विषमताएँ आन्तरिक समता को भंग नहीं कर पातीं । जीवन में आते रहने वाले उतार-चढ़ाव, ज्वार-भाटे, बसंतपतझड़, धूप-छाँह, वर्षा-आतप, हार-जीत, निन्दा-प्रशंसा, मान-अपमान, लाभहानि आदि द्वन्दों से मन विचलित नहीं होता। सारी स्थितियों में समरस बना रहता है। ___आन्तरिक समता की पुष्टि से ही योग-क्षेम पुष्ट होता है । इसी के बल पर हजार प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद भी अपनी सुरक्षा का मिथ्या भय दूर रहता है । जीवन में वैशारद्य आता है, निर्भयता आती है। अगले क्षण क्या हो जायेगा ? इसके लिए चिन्तित, व्यथित, आकुल-व्याकुल नहीं होता। मेरे पुत्र-कलत्र, धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा, सत्ता शक्ति, स्वास्थ्यआयु सुरक्षित रहेंगे या नहीं ? इन निरर्थक चिन्ताओं से मुक्ति मिलती है। प्रतिक्षण परिवर्तनशील प्रकृति को अपरिवर्तनीय बनाए रखने का प्रमत्त प्रयास, जीवन-जगत की सतत् प्रवाहमान धारा को रोक रखने का उन्मत्त आग्रह, पानी के बुदबुदों को मुट्ठी में भींचकर 'मेरा' बनाए रखने का निपट निरर्थक प्रयत्न सहज ही छूट जाता है । जीवन से कुटिलता, विषमता, खिंचाव-तनाव, स्वतः दूर होने लगते हैं। परिस्थितियों की बदलती हुई लहरों पर सहजभाव से तैरना आ जाता है । नितान्त कर्मशील रहते हुए भी परिणामों के प्रति उन्मुक्त निश्चितता आती है और साथ-साथ व्यवहार कौशल्य में प्रौढ़ता आती है । यही समता धर्म का मंगल परिणाम है।
समता आती है तो मन, वाणी और शरीर के कर्मों में शुद्धता आती है। उनमें सामञ्जस्य आता है। परिणामतः जीवन में स्वस्थता आती है। वातपित्त-कफ में विषमता आने से शरीर रोगी हो जाता है । इसी प्रकार मन, वाणी और शरीर के कर्मों में विषमता आने से जीवन रोगी हो जाता है। मन में कुछ हो, बोलें कुछ और, करें कुछ और; तो अस्वस्थ ही हो जाएँगे । ताल-स्वर-लय की समता से जैसे तन्मयता आती है, वैसे ही मन-वाणी-शरीर के कर्मों की