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धर्म का सही मूल्यांकन
त्वचा का अपना महत्त्व है । परन्तु निष्प्राण हो जाय तो भी उसे चिपकाए रखना नासमझी है। छिलकों का अपना महत्त्व है। परन्तु उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाय तो भी मोहवश उन्हें चिपकाए रखना नासमझी है। शुद्ध प्रज्ञा पुष्ट होती है तो हर वस्तु का उचित ही मूल्यांकन होता है। लुभावने तर्कजाल से प्रभावित होकर किसी उपयोगी वस्तु को नष्ट नहीं कर देते और न ही परम्पराओं के प्रति भावावेशमयी आसक्तियों के कारण किसी निकम्मी वस्तु को गले से लगाए रखते हैं । पुष्ट हुई प्रज्ञा से ऐसा विशुद्ध विवेक जागता है जिसमें न थोथा तर्कजाल टिक सकता है और न अंध भावावेश । धर्म के प्रत्येक अंग का सही-सही मूल्यांकन होने के कारण धर्म का सर्वांगीण और समुचित विकास होने लगता है। ____सर्वांगीण और समुचित विकास न हो तो हम अपना स्वास्थ्य खो बैठते हैं। शरीर का कोई एक ही अंग जरूरत से ज्यादा विकसित हो जाय और बाकी सारा शरीर अविकसित रह जाय तो सारे शरीर के साथ-साथ वह विकसित अंग भी रोगी ही माना जाता है। इसी प्रकार धर्म शरीर का भी कोई एक अंग इतना अधिक विकसित हो जाय कि अन्य सभी अंगों के विकास में रुकावट पैदाकर दे तो सम्पूर्ण धर्म-शरीर तो रोगी हो ही जाता है वह अंग-विशेष भी रुग्ण ही माना जाता है। अतः समग्र धर्म - शरीर को स्वस्थ सबल रखने के के लिए आवश्यक है कि धर्म के सभी अंगों का समुचित विकास हो। इस निमित्त सभी अंगों का विवेक पूर्वक समुचित मूल्यांकन होते रहना आवश्यक है । _____ माला तिलक जैसे बाह्याडम्बर, नदी स्नान, तीर्थाटन जैसे बाह्य कर्मकांड अथवा आत्मवाद अनात्मवाद जैसी बुद्धिरन्जनीय दार्शनिक मान्यताएँ आदि की तो बात ही क्या, यदि हम एक अच्छे व्रत का पालन करते हुए अथवा किसी शील का पालन करते हुए उसकी भी अतिरन्जना करने लगे तथा शुद्ध धर्म के अन्य अंगों की अवहेलना करते हुए उसी से परामर्श यानि चिपकाव करने लगें तो यही शील-व्रत परामर्श हमारे लिए भयंकर रोग साबित हो जाय । इससे बचने के लिए और शुद्ध धर्म के सर्वांगीण और समुचित विकास के लिए हर बात का सही-सही उचित-उचित मूल्यांकन होते रहना मावस्या धर्ममय मंगल-जीवन की यही कल्याण कुन्जी है।
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