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धर्म : जीवन जीने की कला
किया है । पहले से दूसरा प्रज्ञावान निश्चित रूप से उत्तम है । परन्तु पहले और दूसरे से वह तीसरा प्रज्ञावान कहीं अधिक उत्तम है जो कि भावनामयी प्रज्ञा हासिल करता है; यानी प्रत्यक्ष अनुभूतियों के बल पर स्वयं अपनी प्रज्ञा जगाता है ।
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हमने अपनी भावनामयी प्रज्ञा जाग्रत की है अथवा परायी प्रज्ञा के बल पर केवल बुद्धिरंजन किया है, इसकी स्वयं जाँच करते रहना चाहिए । प्रज्ञा के नाम पर यदि केवल बुद्धिरंजन हुआ होगा तो जीवन की विषम परिस्थितियों में मन उत्तेजित, उद्वेलित हुए बिना नहीं रहेगा । भावनामयी प्रज्ञा का जितना अभाव होगा, मानसिक असमता उतनी ही अधिक होगी । भावनामयी प्रज्ञा के बल पर जो व्यक्ति, वस्तु, स्थिति, जैसी है उसको जब हम वैसे ही, उसके सही स्वरूप में और उसके सही गुण-धर्म-स्वभाव में देखते हैं तो अपने मन का सन्तुलन बिगड़ने नहीं देते । अन्तर्मन में समाई हुई दौर्मनस्य की विभिन्न ग्रन्थियाँ स्वतः खुलने लगती हैं । चित्त के दूषण दूर होते हैं । उसमें निर्मलता आती है । निर्मलता आती है तभी संकीर्णता के स्थान पर उदारता, दुर्भावना के स्थान पर सद्भावना, द्वेष के स्थान पर प्यार, ईर्ष्या के स्थान पर मोद और वैर के स्थान पर मैत्री जागती है । ये सारे सद्गुण जीवन में आ रहे हैं या नहीं ? हमारे रोजमर्रा के व्यवहार में प्रकट हो रहे हैं या नहीं ? इसी मापदण्ड से धर्म के क्षेत्र में हम अपनी उन्नति को मापें । जैसे-जैसे प्रज्ञा में स्थित होते जाएँगे वैसे-वैसे स्वभाव से शील पुष्ट और समाधि सुदृढ़ होती जायेगी । मन वश में रहने लगेगा । सदाचार जीवन का सहज स्वभाव बन जायेगा । उसके लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा । अपने अन्धे स्वार्थ के लिए औरों की हानि करने की संकीर्ण बुद्धि दूर होगी । अपने सुख-साधन औरों को बाँटकर भागीदार बनाने की दानवृत्ति सहजभाव से जीवन का अंग बन जाएगी । इस प्रकार जैसे-जैसे धर्म की सर्वांगीण पुष्टि होने लगेगी, वैसे-वैसे अनेक रूढ़ियाँ जो कभी धर्म-साधन के रूप में प्राप्त हुई थीं और जिन्हें कि नासमझी के कारण हमने सिद्धि मानकर छाती से चिपका लिया था, वह साँप की केंचुली
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की तरह बिना किसी कष्ट और प्रयास के अपने और जो नई त्वचा आयेगी वह निष्प्राण नहीं होकर आएगी ।
आप छूटती चली जायेंगी । बल्कि सजीव धर्म से उर्मिल