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________________ धर्म का सही मूल्यांकन २६ शुद्ध समाधि के मार्ग पर भी विभिन्न उपलब्धियाँ होती हैं। कभी हम लगातार तीन घण्टे एक आसन पर बैठे रह जाते हैं । परन्तु आसन-सिद्धि साधना का अन्तिम लक्ष्य नहीं है । इसी प्रकार एकाग्रता के अभ्यास के दौरान कभी-कभी बन्द आँखों के सामने हम प्रकाश, ज्योति, रूप, रंग, आकृतियाँ, दृश्य आदि देखने लगते हैं। कभी-कभी कानों से कोई अपूर्व शब्द सुनते हैं, नाक से कोई अपूर्व गन्ध सूंघते हैं, जीभ से कोई अपूर्व रस चखते हैं, शरीर से किसी अपूर्व स्पर्श का अनुभव करते हैं और इन भिन्न-भिन्न अतीन्द्रिय अनुभूतियों को दिव्य ज्योति, दिव्य शब्द, दिव्य गन्ध, दिव्य रस और दिव्य स्पर्श कह कर इनको आवश्यकता से अधिक महत्त्व देने लगते हैं तो भटक ही जाते हैं । इसी प्रकार समाधि का अभ्यास करते हुए कभी सांस सूक्ष्म होते-होते अनायास रुक जाती है। स्वतः कुम्भक होने लगता है । अभ्यास करते-करते विचारों और वितों का तांता मन्द पड़ने लगता है और कभी निर्विचार, निर्विकल्प अवस्था आ जाती है । एकाग्रता बढ़ती है तो भीतर प्रीति-प्रमोद जागता है । आनन्द की लहरें उठने लगती हैं । मन और शरीर रोमांच पुलक से भर जाता है। बहुत हल्कापन महसूस होता है। परन्तु इन भिन्न-भिन्न प्रिय अनुभूतियों को ही सब कुछ मानकर इनकी अतिशयोक्तिपूर्ण व्याख्या करने लगें तो भी भटक जाते हैं। ये अनुभूतियाँ इस लम्बे मार्ग पर मील के पत्थरों जैसी हैं। इनमें से किसी के साथ चिपक जायँ तो वह पत्थर गले का भार बन जाता है। आगे बढ़ना मुश्किल कर देता है । ये अनुभूतियाँ धर्मशालाएँ जैसी हैं। इनमें से किसी को अन्तिम लक्ष्य मानकर उसमें टिक जाएँ तो आगे के रास्ते पर चलना ही नहीं हो सकता । यात्रा बन्द हो जाती है। पहले से लेकर आठवें ध्यान तक की सभी समाधियाँ एक से एक अधिक उन्नत हैं। परन्तु आठों ध्यानों में पारंगत हो जाने पर भी आध्यात्मिक क्षेत्र में सम्पूर्णता नहीं मानी जाती । आठों समाधि समापत्तियों की सहज अनुभूति करने वाले साधक को भी प्रज्ञावान होना नितान्त आवश्यक है। प्रज्ञावान प्रज्ञावान में भी भेद है । कोई प्रज्ञावान ऐसा है जिसने श्रु तमयी प्रज्ञा हासिल की है। यानी पढ़-सुनकर प्रज्ञा की जानकारी प्राप्त की है। दूसरा ऐसा है जिसने चिन्तनमयी प्रज्ञा भी हासिल की है यानी जो पढ़ा-सुना उसे चिन्तन-मनन द्वारा बुद्धि की कसौटी पर कसकर युक्तिसंगत मानकर ही स्वीकार
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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