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धर्म : जीवन जीने की कला
प्रति श्रद्धा जगाने के लिए हैं। उसके गुणों को देखकर मन में प्रेरणा जगाएँ और वे गुण स्वयं धारण करें, इसी निमित्त हैं । परन्तु इसका इससे अधिक मूल्यांकन करने लगते हैं तो विवेक खो बैठते हैं और अन्धश्रद्धा के कारण बुद्धि जड़ होने लगती है। किसी धर्म ग्रन्थ का पाठ करते हैं अथवा श्रवण करते हैं तो इसलिए कि उससे हमें प्रेरणा मिले, मार्गदर्शन मिले, जिससे कि धर्म जीवन में उतार सकें। परन्तु इसे भुलाकर केवल श्रवण, पठन को ही सब कुछ मान लेते हैं तो गाड़ी फिर मिथ्यादृष्टि के दलदल में धंस जाती है। ____ कोरा वाणीविलास और बुद्धिविलास धर्म नहीं है। जीवन में उतरा हुआ शील-सदाचार ही धर्म है। शील-सदाचार की भी अलग-अलग श्रेणियाँ हैं । अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, सत्य और अप्रमाद- इन शीलों में से कोई एक, कोई दो, कोई तीन, कोई चार अथवा कोई पाँचों का पालन करता है तो एक से दूसरा क्रमशः अधिक धार्मिक है। इनमें भी कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट शील का पालन इसलिए कर पा रहा है कि जिस परिस्थिति और परिवेश में वह जन्मा, पला और रहता है वह उस शील पालन के अनुकूल है। दूसरा व्यक्ति नितान्त प्रतिकूल परिस्थिति में भी उस शील का पालन करता है, मन को वश में रखता है तो यह दूसरा व्यक्ति पहले से अधिक श्रेष्ठ है ।
मन को वश में करना धर्म का महत्त्वपूर्ण अंग है । यही समाधि है । परन्तु एक व्यक्ति समाधि हासिल करने के लिए जिस आलम्बन का प्रयोग करता है, वह राग, द्वेष या मोह बढ़ाने वाला हो तो वह व्यक्ति दूषित चित्त से समाधिस्थ होता है। दूसरा व्यक्ति ऐसे आलम्बन अपनाता है जो कि राग, द्वेष और मोह को क्षीण करने वाले हैं, तो पहले की अपेक्षा यह दूसरा व्यक्ति अधिक उत्तम है। दूषित चित्त की एकाग्रता द्वारा मनोबल प्राप्त करके भी अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ हासिल की जा सकती हैं। इनके बल पर सामान्य लोगों को चकाचौंध कर देने वाले चमत्कार प्रदर्शित किये जा सकते हैं। परन्तु इसे धर्म मान लेना खतरनाक है । यह आवश्यक नहीं कि जिस व्यक्ति ने सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं, वह धर्मवान हो। अनेक दुःशील व्यक्ति चमत्कार प्रदर्शित करते हुए देखे जाते हैं । अतः चमत्कारों के आधार पर धर्म का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता । करते हैं तो मूल्यांकन गलत होता है । समाधि के साथ शील की भूमिका अनिवार्य है।