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धर्म का सही मूल्यांकन
धर्म-पथ की आगे की बहुत सी मंजिलें प्राप्त करनी होती हैं, इसे वह न भूल जाय।
टहलना, दौड़ना, तैरना, व्यायाम करना और इसी तरह आसन, प्राणायाम करना, शरीर को स्वस्थ और फुरतीला बनाए रखने के लिए आवश्यक है, लाभदायक है । इसी प्रकार रोज नहाना, शरीर को स्वच्छ रखना, साफ-सुथरे कपड़े पहनना अच्छा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में इनका अपना महत्त्व है, अपना मूल्य है । परन्तु केवल इन्हीं को सम्पूर्ण धर्म मान बैठे और शरीर की बाहरीसफाई में ही लगे रह कर भीतरी सफाई रोक दें तो अपनी हानि ही होगी।
कोई व्रत पालन करता है तो इसलिए कि मन संयमित, निग्रहित, सबल, सुदृढ़ हो, धर्म मार्ग पर अविचल आरूढ़ हो । परन्तु इन व्रतों को ही सब कुछ मान बैठे तो यही बन्धन बन जायेंगे। कोई माला फेरता है और मन ही मन किसी मन्त्र का जाप करता है तो मन को एकाग्र करने के लिए ही। परन्तु मन की एकाग्रता का जरा भी अभ्यास करें नहीं और यन्त्रवत् माला फेरने और मन्त्र जपने की रूढ़ि को ही धर्म मान बैठना भटकाव है।
कोई मन्दिर जाकर अपने उपास्यदेव की मूर्ति के दर्शन करता है । इससे उसके मन में श्रद्धा जागती है। श्रद्धा से मन में सौमनस्यता जागती है । सौमनस्यता चित्त को एकाग्र करने में सहायक होती है। अपने उपास्यदेव की मूर्ति खुली आँखों से देखता है और फिर आँख मूंद कर बार-बार उसका ध्यान करता है। इस अभ्यास द्वारा वह आकृति बन्द आँखों के सामने भी आने लगती है। इस प्रकार चित्त को एकाग्र करने का एक साधन प्राप्त हो जाता है। आकृति का ध्यान करते-करते अपने उपास्य देव के गुणों का ध्यान करने लगता है और उन गुणों को अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करने लगता है। यह सचमुच कल्याणकारी है। परन्तु यह सब तो करे नहीं, केवल मन्दिर जाने और मूर्ति के सामने यन्त्रवत् सिर झुकाने को ही सम्पूर्ण धर्म मान ले तो वह गलत मूल्यांकन के कारण रूढ़ियों में उलझना है।
इसी प्रकार भजन कीर्तन तल्लीनता के लिए हैं। चित्त को एकाग्र करने के साधन हैं । परन्तु इन्हें इससे अधिक कुछ और मानने लगें तो फिर भुलावे में पड़ जाते हैं । किसी गुरु या संत का दर्शन, उसको किया गया नमन, उसके