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धर्म न तर्क-वितर्क है, धर्म न वाद-विवाद । विरज विमल चैतन्य का, धर्म पुनीत प्रसाद ॥
शुद्ध धर्म पालन करें, प्रज्ञा जगे विशुद्ध । नीर क्षीर के भेद का, रहे विवेक प्रबुद्ध ।
शुद्ध धर्म का होय जब, सर्वांगीण विकास । तो सद्गुण सद्भाव का, उजला होय उजास ॥
धर्म न मंदिर में मिले, धर्म न हाट बिकाय । धर्म न ग्रन्थों में मिले, जो धारे सो पाय ।
मंदिर मंदिर डोलते, वृद्ध हो गया छैल । पग की पगतरियाँ घिसी, घिसा न मन का मैल ॥
मंदिर मसजिद भटकते, किसे मिला भगवान ? सेवा करुणा प्यार से, स्वयं बनें भगवान ।।