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शील धर्म पालन भला, सम्यक् भली समाधि । प्रज्ञा तो जाग्रत भली, दूर करे भव व्याधि ||
शील धर्म की नींव है, है समाधि ही भीत । प्रज्ञा छत है धर्म की, मंगल भुवन पुनीत ॥
प्रज्ञा शील समाधि ही, शुद्ध धर्म काया वाणी चित्त के, सुधरे सब
शुद्ध धर्म का शांतिपथ, संप्रदाय शुद्ध धर्म की साधना, मंगल से
का सार । व्यवहार ॥
यह ही ऋत है, नियम है, इससे धर्म धार सुख ही मिले, त्यागे
दूर ।
भरपूर ॥
जो चाहे सुखिया रहे, रहें सभी खुशहाल । मन से, तन से, वचन से शुद्ध धर्म ही पाल ॥
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बचा न कोय । दुखिया होय ॥