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शुद्ध धर्म
हैं । प्रज्ञा इन आसक्तियों का मैल दूर करती हैं । मैल रहे तो हम दुखी रहते हैं, सुखी नहीं।
शील, समाधि और प्रज्ञा के अभ्यास का प्रत्येक कदम शुद्ध धर्म के अभ्यास का, धर्म के सार को ग्रहण करने का, सच्चे सुख को प्राप्त करने का कदम है । जिससे न हमारा शील प्रतिष्ठित होता है, न शुद्ध समाधि पुष्ट होती है और न प्रज्ञा स्थिर होती है, वह कर्म थोथी परम्परा के कारण चाहे जितना धार्मिक कृत्य कहा जाय, पर वस्तुतः सत्य धर्म से, सार तत्व से दूर ले जाने वाला कदम ही है । ऐसे सभी निरर्थक बाह्याचार, थोथे कर्मकाण्ड, निर्जीव लकीरें, दम्भपूर्ण दिखावे, आडम्बरपूर्ण वेषभूषाएँ, उच्च जाति में जन्म लेने अथवा धनवान होने का मिथ्या अहंभाव आदि सब निस्सार ही निस्सार हैं । दुख ही दुख हैं। अपने लिए भी, औरों के लिए भी।
इसलिए, धर्म के सार को ही ग्रहण करें, निस्सार को त्यागें। अपने तथा औरों के सुख के लिए ! कल्याण के लिए !!