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१९. विपश्यना क्यों ?
... मन में मैत्री करुण रस, वाणी अमृत घोल ।
___ जन जन के हित के लिए, धर्म वचन ही बोल ॥
शांति व चैन किसे नहीं चाहिए जबकि सारे संसार में अशांति और बेचैनी छायी हुई नजर आती है ? शांतिपूर्वक जीना आ जाय तो जीने की कला हाथ आ जाय । सच्चा धर्म सचमुच जीने की कला ही है, जिससे कि हम स्वयं भी सुख और शांतिपूर्वक जीएँ तथा औरों को भी सुख-शांति से जीने दें। शुद्ध धर्म यही सिखाता है, इसलिए सार्वजनीन, सार्वकालिक और सार्वभौमिक होता है । संप्रदाय धर्म नहीं है । सम्प्रदाय को धर्म मानना प्रवंचना है ।
समझें ! धर्म कैसे शांति देता है ? ___ पहले यह जान लें कि हम अशांत और वेचैन क्यों हो जाते हैं ? गहराई से सोचने पर साफ मालूम होगा कि जब हमारा मन विकारों से विकृत हो उठता है तब वह अशांत हो जाता है। चाहे क्रोध हो, लोम हो, भय हो, ईर्ष्या हो या और कुछ । उस समय विक्षुब्ध होकर हम संतुलन खो बैठते हैं। क्या इलाज है जिससे हममें क्रोध, ईर्ष्या, भय इत्यादि आएं ही नहीं और आएँ भी तो इनसे हम अशांत न हो उठे।
आखिर ये विकार क्यों आते हैं ? अधिकांशतः किसी अप्रिय घटना की प्रतिक्रियास्वरूप आते हैं। तो क्या यह संभव है कि दुनिया में रहते हुए कोई अप्रिय घटना घटे ही नहीं ? कोई प्रतिकूल परिस्थिति पैदा ही न हो ? नहीं, यह किसी के लिए भी संभव नहीं। जीवन में प्रिय-अप्रिय दोनों प्रकार की परिस्थितियां आती ही रहती हैं। प्रयास यही करना है कि विषम परिस्थिति पैदा