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भाषण
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शक्ति रखते थे। उन्हें गरीबी का भय नहीं था, ठंड-गर्मी का भय नहीं था, विकराल तथा जहरी प्राणियों का भय नहीं था, बल्कि उन सवको भयभीत करने की शक्ति थी। किन्तु उन्होंने उन सब को अभय दान दिया। अहिंसा का दूसरा अर्थ अभयदान हो सकता है। मेरे पास धन हो तो धन का दान कर सकता हूँ, वस्त्र हो तो पक्ष का दान कर सकता हूँ, बुद्धि हो तो बुद्धि का दान कर सकता हूँ, विद्या हो तो विद्या का दान कर सकता हूँ, वैसे ही मेरे पास - अभय हो तो ही मैं अभय दान दे सकता हूँ। ३४. तप और उत्सव विरोधी वाते हैं :
वाहर से देखने पर जैन समाज की दो बातें ध्यान खींचती हैं। एक तो उनकी तपप्रियता और दूसरी जुलूस (उत्सव) प्रियता। ये दोनो विरोधी वाते हैं। जैसे ब्राह्मणधर्म की किसी भी धार्मिक क्रिया के प्रारंभ मे और अन्त में स्नान होता है, वैसे ही मालूम होता है कि आप लोगों में प्रत्येक क्रिया के साथ उत्सव होता ही है। आध्यात्मिक उन्नति की दृष्टि से उत्सव-हर प्रसिद्धि के लिए होनेवाला कर्म-विन्न रूप है। इससे जिसके लिए उत्सव होता है उसकी अवनति होती है और उत्सव करनेवाले का कोई लाभ नहीं होता । जैसे कोई मनुष्य अनाज का खूब गोदाम भरकर रखे और उपद्रवी लोग उसे तोड़ डालें और अनाज ले तो न जायें, लेकिन धूल में विखेर दे; वैसे हो कोई आदमी कठिन तप करे और आप