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महावीर का जीवन-धर्म
हम विवेक से और प्रसंगोपात वर्ताव से निकाल सकते हैं। किसी गोरे साहव के सामने, किसी अफसर के सामने, किसी पठान के सामने, किसी सिपाही के सामने, चोर के सामने जाते हुए हमारा मन कॉप जाता हो, हमारा शरीर मानो सकुचा जाता हो, हमें रास्ता ही न सूझता हो तो यह सव भय की निशानियों हैं। हम उपद्रव न करें, उन्हें खुश रखें यह प्रेम या अहिंसा नहीं है। लेकिन वे हम जैसे ही मनुष्य हैं इस विचार से हम अपने में निःसंकोचता चढ़ावें, उनकी धाक हमारी मनोवृत्ति तक न पहुंचे, उनके साथ में हमें समानता मालूम हो तो हम उनके प्रति अहिंसा वृत्ति रख सकते है और प्रसंग आनेपर बढ़ता और धीरज रख उसका उपयोग कर सकते हैं। इनमें किसी समय द्वेष-हिंसा होना भी संभव है। लेकिन डरपोक वृत्ति की अहिंसा की अपेक्षा यह हिंसा अच्छी है। सुना है कि कुछ दिन पहले मांडल में जो दंगा हुमा, उसमें बनिए अपने खी-बच्चों को निराधार छोड़कर छिप गए। अहिंसक का बर्ताव ऐसा नही होता । इसलिए अहिंसा का उत्कर्ष होने के पहले हमसे निर्भयता पानी चाहिए।
३३. समयदान अहिंसा है:
अहिंसा धर्म की पराकाष्ठा पर पहुँचनेवाले महावीर स्वामो की हिंसा इस प्रकार की थी वे अपने में सर्प को फूल की माला __की तरह उठाकर फेंक देने की, दुश्मन को पहाड़ देने की.