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वेदना, संज्ञा, संस्कार को अर्थात् इन पांचों की समष्टि को मनुष्य का स्वरूप माना गया है। इस सम्प्रदाय में विज्ञान के दो रूप माने गये हैं- १. प्रवृत्ति, २. आलय ।
जिस ज्ञान से विभिन्न क्रियाओं में मनुष्य की प्रवृत्ति होती है उसे प्रवृत्ति विज्ञान कहा जाता है और अहमाकार ज्ञान को आलय विज्ञान कहा जाता है। आलय विज्ञान निरन्तर प्रवाहमान रहता है।
'अभिधर्म विभाषाशास्त्र' नामक ग्रन्थ में प्रतिपादित सिद्धान्त को स्वीकार करने के कारण इस सम्प्रदाय को वैभाषिक शब्द से अभिहित किया गया है। वैभाषिक के मतानुसार बाह्य विषयों का ज्ञान प्रत्यक्ष से होता है। बाह्य विषयों को प्रत्यक्ष का विषय मानने के कारण उन्हें 'बाह्य प्रत्यक्षवादी' कहा गया है। वैभाषिक निर्वाण को भावरूप मानते हैं उनके अनुसार इसमें दुःख का पूर्णतः विनाश हो जाता है। २. सौत्रान्तिक मत
यह हीनयान सम्प्रदाय का ही रूप है। सौत्रान्तिक मत 'सुत्त पिटक' पर आधारित है। इसी कारण इसे सौत्रान्तिक कहा जाता है। जिस सम्प्रदाय में बुद्ध के सूत्रात्मक उपदेशों की व्याख्या को प्रमाण न मानकर सूत्रों का ही प्रमाण माना जाता है और सूत्रों की भाषा से जो सिद्धान्त बुद्धिस्थ होता है उसी सिद्धान्त को बुद्ध द्वारा स्वीकृत सिद्धान्त माना जाता है। उसे ही सौत्रान्तिक कहा जाता है। इस सम्प्रदाय में भी बाह्य और अन्तर दोनों प्रकार के वस्तुओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है किन्तु वैभाषिक से अन्तर मुख्य रूप से यह है कि इसमें बाह्य पदार्थों को प्रत्यक्ष न मानकर अनुमानगम्य माना गया है। किसी को जब कोई ज्ञान उत्पन्न होता है तब उसकी उसे प्रत्यक्ष रूप से अनुभूति होती है यह अनुभूति निराकार रूप में न होकर साकार रूप में होती है। बाह्य विषय मन में प्रतिरूप उत्पन्न करते हैं। वाह्य विषयों के अलग आधार होने से उनके प्रतिरूप अलग होंगे। इस प्रकार वाह्य विषयों का ज्ञान उनसे उत्पन्न