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मानसिक आकारों से अनुमान द्वारा प्राप्त होता है। इसलिये इस मत को बाह्यानुमेयवाद कहा जाता है। इस मत को परोक्ष पथार्थवादी भी कहा जाता है। ३. माध्यमिक शून्यवाद
यह महायान सम्प्रदाय का मुख्य उप सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक नागार्जुन को माना जाता है। नागार्जुन की 'माध्यमिक कारिका' से इस विषय में जानकारी मिलती है। अश्वघोष का ‘महायानश्रद्धोत्पाद' शास्त्र नामक ग्रन्थ मूल संस्कृत में उपलब्ध नहीं है। 'सौन्दरानन्द और बुद्धचरित' संस्कृत महाकाव्य उपलब्ध है। इस सम्प्रदाय की यह मान्यता है कि 'सर्वशून्यता ही परमार्थिक है, यथार्थ में न कोई विषय है और न कोई ज्ञान है शून्यता ही वास्तविकता है उसे सत्, असत्, सदसत् नोसदसत, इन चार कोटियों में कहीं भी अन्तर्भूत नहीं किया जा सकता है। वह पूर्णरूप से अनिरूप्य और अनिर्वाच्य है। उसका वास्तविक स्वरूप अनादिकाल से प्रवाहमान संवृत्ति, अविद्या किंवा वासना से आवृत्त है। इसीलिये उसका अवभास न होकर उसके स्थान में संसार का अवभास होता है। इस सम्प्रदाय की यह मान्यता है कि मनुष्य को दुःख से मुक्त होने के लिये संसार के सम्बन्ध में सर्वक्षणिकम् सर्वदुःखम्, सर्वस्व लक्षणम और सर्वशून्यम इस भावना चतुष्ट्य का निरन्तर अभ्यास करते रहना चाहिये जिससे मनुष्य का चित्त संसार में अनासक्त हो शून्यता में उसे समाहित कर सदा के लिये दुःखरहित बनाने में समर्थ हो सके। माध्यमिक शून्यवाद का दर्शन शंकराचार्य के अद्वैत वेदान्त से मिलता-जुलता है। शून्यवाद भी संवृत्ति और परमार्थिक सत्य को मानता है शंकराचार्य ने इसे व्यवहारिक और परमार्थिक सत्य के रूप में माना है। नागार्जुन ने कहा परमार्थिक दृष्टिकोण से सभी असत्य है शंकराचार्य ने भी ईश्वर, जगह आदि को असत ही माना है। नागार्जुन का शून्य और शंकर का निर्गुण ब्रह्म लगभग एक ही है। इन समानताओं के कारण ही शंकर को कुछ विद्वानों ने 'प्रच्छन्न बौद्ध' कहा है। ४. योगाचार वि|नवाद