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कल्पित व्यवस्था को 'ऋत का नियम' कहा गया है। इस प्रकार के नियम का सवप्रथम परिचय हमें वैदिक साहित्य से प्राप्त होता है। मीमांसा में इसको ही 'अपूर्व' तथा न्याय वैशेषिक में इसे 'अदृष्ट' कहा गया है।
भारतीय-दर्शन में विचारों में समन्वयवाद को विशेष स्थान दिया गया है। यह सत्य है कि दार्शनिक सिद्धान्तों का अनुसंधान एवं प्रतिपादन बौद्धिक रूप में हुआ है। फिर भी जीवन के अन्य सभी पहलुओं की अवहेलना नहीं की जा सकती है।
भारतीय दार्शनिक परंपरा की यह विशेषता 'प्रगतिशीलता' भी है। भारतीय दार्शनिक परंपरा में समय समय पर तत्कालीन प्रचलित सिद्धान्त के प्रतिवादी सिद्धान्त को प्रस्तुत कर प्रगतिशीलता को प्रमाणित किया है। इसी प्रगतिशीलता का परिणाम है कि भारतीय दार्शनिक परंपरा में जड़वाद, अध्यात्मवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद विशिष्टाद्वैतवाद आदि सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये है।
यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि भारतीय दर्शन धर्म के साथ समन्वित हैं। तो भी भारतीय दार्शनिक विचारों की अवहेलना बिलकुल नहीं हुई है। दार्शनिक सत्य के अनुसंधान के लिए बुद्धि को प्रबल साधन के रूप अपनाते आये हैं।
दार्शनिक चिन्तन का व्यावहारिक उद्देश्य होता है। मानव जिज्ञासा को शान्त करना ही दर्शन का प्रधान लक्ष्य है। दार्शनिक जब तक जीवन और जगत को ठीक ढंग से नहीं जान लेते हैं। तब तक उसका चिन्तन मनन निरन्तर जारी रहता है। जीवन और जगत को नश्वर समझने पर व्यक्ति अपने जीवन को सुखी बना सकता हैं। इस प्रकार जीवन के मूल समस्याओं का हल प्राप्त करना ही दर्शन अपना कर्तव्य समझता है।
भारतीय दर्शन की एक विशेषता यह भी है कि दर्शन चिन्तन निष्पक्ष होता है। विश्व का अध्ययन करते समय दार्शनिक अपने स्वार्थभाव रागद्वेष एवं पक्षपातपूर्ण
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