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आदि महान दार्शनिक हुये। न्याय में उद्योतकर सांख्य में वाचस्पति मिश्र और विज्ञान भिक्षु नव्य के गंगेश तथा अन्य नैय्यायिक इस युग के महान दार्शनिक हैं ।
भारतीय दर्शनों के काल विभाजन का यह सामान्य रूप-रेखा है परन्तु पूर्वोत्तर काल-विभाग उतना नियमित तथा सुव्यवस्थित नहीं है।
शङ्करोत्तर युग में विशेषतः वेदान्त का विकास हुआ और बौद्ध दर्शन का पतन हुआ। इस समय वेदान्त में स्पष्टतया दो मत हो गये- शंकर वेदान्त या निर्गुण वेदान्त और सगुण वेदान्त।
शंकरोत्तर युग या वेदान्त युग अभी तक चल रहा है। प्रस्थानत्रयी जिसका शंकराचार्य नें भाष्य लिखकर उद्धार किया था आज भी दार्शनिकों के अध्ययन और चिन्तन का मुख्य विषय हैं। भारतीय-दर्शन के इन चार युगों को सूक्ष्मता से देखने पर पता चलता है कि प्रथम युग में प्रधानता वैदिक दर्शन की थी और अवैदिक दर्शन दबा पड़ा था। द्वितीय-युग में बौद्ध दर्शन का उदय एवं विकास हुआ। उसने बैदिक-दर्शन को दबा दिया। परिणाम स्वरूप वैदिक दार्शनिको ने अपने दर्शनों को खूब सुसंगठित किया और बौद्ध दर्शनों से प्रतिस्पर्धा की। इस युग के अन्तिम चरण तक दोनो परस्पर आपस मे घात–प्रतिघात करते रहे और बराबरी पर थे किन्तु तृतीय-युग में बैदिक-दर्शन और दृढ़तर हुआ और उसने बौद्ध-दर्शन का उनमूलन कर दिया अन्त के चतुर्थ युग में बौद्धिक दर्शन का फिर जोरों से चहुमुखी-विकास हुआ जब कोई अवैदिक दर्शन उनका आलोच्य न रहा तब वे स्वयं एक दूसरे की आलोचना करने लगे। इस तरह पारस्परिक आलोचना करते हुये विकसित होते रहे। नाशनिक वाङ्गमय का विकास
यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि पारम्परिक समय में दर्शन की शाखाएँ किस विधि से उत्पन्न हुई तथा इनका विकास किन प्रभावों के अन्तर्गत हुआ? परन्तु वैदिक युग का अध्ययन करने के पश्चात स्पष्ट हो जाता है कि उपनिषद् काल
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