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में ही दार्शनिक जिज्ञासा की भावना का आरम्भ हो गया था। जिसमें जिज्ञासा का आधार यह था कि आत्मा ही वह सत्य है जिसकी खोज करना आवश्यक है। इसमें आत्मा को 'नेति-नेति' रूप में समझाया गया है। उपनिषद् काल के पश्चात जैन, बौद्ध जैसे धर्मों का उदय पाखण्डों के विरूद्ध हुआ किन्तु इसका प्रसंग उपनिषदों में प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार उपनिषदों के प्रणेता ऋषियों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी दार्शनिक भावना का उदय हो चुका था किन्तु इसका भी कोई ठोस प्रमाण प्राप्त नही होता है। ऐसा स्पष्ट होता है कि हिन्दू दर्शन जिन ऋषियों द्वारा प्रतिपादित किया गया, वे यद्यपि उपनिषदीय विचारधारा को मानते थे तो भी विरोधी विचारधाराओं से एवं अन्य नास्तिक सिद्धान्तों का भी उन्हें अनुमान था। इन ऋषियों एवं उनके शिष्यों की संगोष्ठियों में विरोधी एवं नास्तिक विचारधारा के ऊपर तर्कतः वाद विवाद होता था। और युक्तियों से विरोधी मतों का खण्डन करना अपना कर्तव्य समझते थे। इसी कालक्रम में गौतम तथा कणाद जैसे ऋषियों मनीषियों ने इन सारे वाद विवादों को क्रमशः व्यवस्थित कर दार्शनिक शाखाओं को मूर्त रूप दे दिया और इस पर अनेक सूत्रों की रचना की जिससे दर्शन शास्त्र की विभिन्न शाखाओ का ज्ञान होता है। इस प्रकार विरोधी पक्षों के मतों का भी स्थान-स्थान पर वर्णन उपलब्ध होता है। विपक्षी मतों के निरन्तर संघर्ष के कारण भारतीय दर्शन शास्त्रियों को ऐसा अभ्यास हो गया था कि वे अपने सभी ग्रन्थों को शास्त्रार्थ खण्डन-मण्डन या पूर्वपक्ष उत्तरपक्ष के रूप में ही लिखा करते थे और लेखक यह कल्पना कर लेता था कि जो कुछ वह कहेगा उसके सम्बन्ध में विपक्षी मतावलम्बी अवश्य कोई प्रश्न उठायेंगे। इस प्रकार शंकाओं, तों, वाद-विवादों आदि से दर्शन शास्त्र का क्रमशः विकास हुआ। संक्षेपतः कोई दार्शनिक मत दूसरे मतो के प्रसंगो के बिना दिये हुये स्थापित नहीं किया जा सकता है।
एस० एन० दास गुप्ता ने अपनी पुस्तक 'भारतीय दर्शन का इतिहास' में लिखतें हैं कि- अपने युग में प्रत्येक दर्शन के विरोधी विचारधाराओं के बीच ऐसा महत्वपूर्ण