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दार्शनिक दृष्टि से सांख्य, चार्वाक और भगवद्गीता के दर्शन इस काल में बन चुके थे। भगवद्गीता महाभारत का अंश हैं अपने मूलरूप मे वह बुद्ध पूर्व की रचना है। (२) दुसरा युग बुद्धोत्तर युग है- यह ईसा पूर्व छठी शताब्दी के अविर्भाव तक चलता है। सांख्य के अतिरिक्त अन्य सभी दर्शनो का इस युग में उद्भव और विकास हुआ। पहले बौद्ध दर्शन के चार निकायों का वैभाषिक, सौत्रान्तिक, माध्यमिक और योगाचार के क्रम से विकास हुआ। इसका समय ई० पूर्व पहली शदी से चौथी शदी ईस्वी है। इसी समय पहले जैमिनि के मीमांसा सूत्र और कणाद के वैशेषिक सूत्र की रचना हुई। फिर गौतम के न्याय सूत्र और बादरायण के ब्रह्म-सूत्र की रचना हुई। इसी समय शबर (मीमांसा) ईश्वरकृष्ण (सांख्य) वात्सायन और उद्योतकर (न्याय), प्रशस्तपाद (वैशेषिक) गौणपाद (बेदान्ती) तथा समन्तवाद और पूज्यपाद (जैन) उच्च कोटि के दार्शनिक हुये। बौद्धो मे इस युग मे नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु, दिङ्गनाग और धर्मकीर्ति ये उच्चकोटि के दार्शनिक हुये।
बुद्धोत्तर युग विविध दर्शन-शास्त्रों का युग है पहली शती ई० पूर्व से लेकर सातवीं सदी ईसवीं तक भारत में दार्शनिक चिन्तन का बहुत अधिक विकास हुआ। इसी काल में सभी दर्शनों में एक दूसरे का घात-प्रतिघात सहा और अपने रूप को निखारा वे सब एक दूसरे से शास्त्रार्थ करते रहे।
३. तीसरा युग शंकर युग है- यह आठवीं सदी का काल है इस युग में कुमारिल और प्रभाकर (मीमांसा) शंकर (अद्वैत बेदान्त) पद्मपाद (अद्वैत वेदान्त )जैसे उच्च कोटि के दार्शनिक हुये। इस काल के दार्शनिकों ने बौद्ध दर्शन का भारत से उन्मूलन कर दिया।
चौथा युग शंकरोत्तर युग है- इस युग में रामानुज, निम्बार्क, महत्व, कल्याण चैतन्य आदि वेदान्ती हुये जिन्होंने शंकर के मत का खण्डन किया। फिर शंकर के अनुयायियों ने बाचस्पति मिश्र, स्वामी विद्यारण्य, श्रीहर्ष, चित्सुख, मधुसूदन सरस्वती