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सरस्वती और नारायण तीर्थ के शिष्य थे और काशी में रहकर आचार्य बल्देव उपाध्याय ने 'संस्कृत वाङ्गमय का वृहद इतिहास- दशमखण्ड वेदान्त में लिखा है कि- “वामन शास्त्री भूमिका में लिखते है कि अद्वैत ब्रह्म सिद्धि में छ: आस्तिक और छ: नास्तिक दर्शनों का उपन्यासपूर्वक खण्डन तथा अद्वैतवेदान्त का अबाधित प्रतिपादन है। यह सर्वदर्शन संग्रह जैसा ग्रन्थ है।' अन्त्य यह है कि सर्वदर्शन संग्रह में किसी भी मत का खण्डन नहीं किया गया है जबकि इसमें किया गया है। तात्पर्य यह है कि अद्वैतब्रह्मसिद्धि आधेपान्त आलोचनात्मक तथा विश्लेषणात्मक है। मधुसूदन सरस्वती की अद्वैतसिद्धि में खण्डन की प्रधानता है तथा अद्वैत सिद्धान्त गौण हो गया। भट्टोजी दीक्षित का तत्वकौस्तुभ, अप्पय दीक्षित का सिद्धान्त लेश संग्रह, नृसिंहाश्रम का भेदधिक्कार ये सब एकदेश ग्रन्थ है। इसमें अद्वैतवेदान्त के प्रतिपादन की आवश्यकता थी। इसको सदानन्दयति ने अद्वैतब्रह्मसिद्धि लिखकर पूरा किया। रंगनाथ (१७वीं शताब्दी)
रंगनाथ ने शाङ्कर अद्वैत का ही प्रतिपादन किया है। रंगनाथ ने ब्रह्मसूत्र की शांकर भाष्यानुसारिणी वृत्ति लिखी है। भामतीकार ने इसे भाष्य के अर्न्तगत माना है। किन्तु वैयासिक न्यायमालाकार भारतीतीर्थ ने इसे पृथक सूत्र माना है।
१७वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अच्युत कृष्णानन्द तीर्थ नामक आचार्य भी अद्वैत वेदान्त के समर्थक रहे है। इन्होंने अप्पय दीक्षित के सिद्धान्त लेश पर टीका लिखी है। सिद्धान्तलेश की यह टीका कृष्णालंकार अत्यन्त सुबोध एवं सरल है। इन्होंने तैत्तिरीयोपनिषद शांकर भाप्य के ऊपर वनमाला नामक टीका लिखी है।
इसके बाद १८वीं शताब्दी में सदाशिवेन्द्र सरस्वती ने अद्वैत वेदान्त को आगे बढ़ाने में प्रसास किया। इनका अन्य नाम सदाशिवेन्द्र ब्राम्हण था। इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर
'बलदेव उपाध्याय-सस्कृत वाङ्गमय का वृहद इतिहास-दशम खण्ड वेदान्त पृ०१
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