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दोनों ग्रन्थों की रचना एक ही समय में हुई है। जिस प्रकार श्री हर्ष की काव्य में लोकोत्तर प्रतिभा है उसी प्रकार दर्शन में भी है। इनके विषयपद लालित्य को अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। इसके सम्बन्ध में- “उदिते नैषधे काव्ये क्व माघः क्व च भारविः ।" यह उक्ति अक्षरशः सत्य है ।
खण्डनखण्डखाद्य
'खण्डनखण्डखाद्य' के खण्डनखण्ड, खण्डखाद्य, खाद्यखण्डन तथा खण्डन आदि नाम प्रचलित है। इसका एक नाम 'अनिर्वचनीयता सर्वस्व भी है । खण्डन खण्ड खाद्य का अर्थ है
(अ) पदार्थादि खण्डनस्य खण्डया खांडसार अर्थात् जिस ग्रन्थ के अध्ययन एवं अध्यापन करने वाले को पदार्थादि खण्डन रूप खांड के समान माधुर्य रस का अनुभव हो वह 'खण्डन खण्ड खाद्य' है ।
(ब) ‘खण्डन रूपं यत्खण्डखाद्यं तत्खण्डन खण्डखाद्यं नाम ग्रन्थ:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार इसका अर्थ है वैद्यकशास्त्र में 'खण्डखाद्य पाक विशेष का नाम है । जिस प्रकार रोगों को दूर करके रोगी में बल एवं पुष्ट्यादि का हेतु बनता है, उसी प्रकार यह 'खण्डन' ग्रन्थवादियों के मतों का अक्षरशः खण्डन करने में समर्थ होने की योग्यता उत्पन्न करता है। इस ग्रन्थ का यही अर्थ उचित प्रतीत होता है । खण्डनखण्डखाद्य ग्रन्थ में चार परिच्छेद है। इसमें शून्यवाद तथा अद्वैतवाद का विवेचन कर दोनों में परस्पर भेद का निरूपण किया है। फिर अद्वैत का साधन और भेद का खण्डन किया है। श्री हर्ष के ग्रन्थ निर्माण का प्रयोजन तत्व निर्णय और विजय बतलाते हुए बाद, जल्प और वितण्डा शास्त्रार्थ के तीनों प्रकारों तथा शून्यवाद अद्वैतवाद व भेदभाव सभी में खण्डनोक्त युक्तियों का एक सा उपयोग है, भूमिका को समाप्त करते हुए बतलाया है।
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