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ब्रह्म" उसका स्वरूप लक्षण है। उपनिषदों में ब्रह्म का वर्णन कहीं 'नेति-नेति' पद्धति से किया गया है। बृहदारण्यको० ब्रह्म का पूर्ण निषेधात्मक वर्णन करता है क्योंकि ब्रह्म में सर्वस्व समाविष्ट है- 'अथातं आदेशः नेति-नेति। नहि एतस्मादिति न इति अन्यत्यपरमस्ति।' उपनिषदों में ब्रह्म के दो रूप मिलते हैं- १- सप्रपञ्च और २निष्प्रपञ्च।
सप्रपञ्च ब्रह्म को सगुण, अपर ब्रह्म, मूर्त या ईश्वर कहते हैं और निष्प्रपञ्च ब्रह्म को निर्गुण, निर्विशेष, अमूर्त या परब्रह्म कहते हैं। सप्रपञ्च ब्रह्म की अवधारणा धार्मिक है, निष्प्रपञ्च ब्रह्म की अवधारणा दार्शनिक है। व्यवहारिक दृष्टि से ब्रह्म सप्रपञ्च है
और परमार्थिक दृष्टि से निष्प्रपञ्च। निष्प्रपञ्च ब्रह्म की धारणा के अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत् है और इसके अतिरिक्त अन्य वस्तुएं आभासमात्र है, यह ब्रह्मविवर्तवाद है।
बृहदारण्यक उपनिषद् में ईश्वर की महत्ता के विषय में कहा गया है कि ईश्वर विश्व के भीतर निवास करता है और विश्व का शासन करता है। उसे विश्व का अन्तर्यामी सूत्रधार कहा गया है। तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया है कि सृष्टि की उत्पत्ति के समय ईश्वर ने प्रत्येक सृष्ट पदार्थ में प्रवेश किया और तत्पश्चात उसने स्वयं सत्-असत्, विज्ञान-अविज्ञान रूप धारण कर लिया। अतः ईश्वर प्रत्येक वस्तु में व्याप्त है। सम्पूर्ण सृष्टि ईश्वर की शरीर है।
श्वेताश्वतर उपनिषद् में ईश्वर की सर्वव्यापकता वर्णित की गयी है इससे तात्पर्य यह है कि ईश्वर, अग्नि, जल, वनस्पति, वृक्ष आदि विश्व के कण-कण में व्याप्त हैं।
इसी उपनिषद् में एक जगह कहा गया है कि ईश्वर विश्व के परे स्वर्ग में वृक्ष की भाँति अविचल रूप से स्थित है। अतः विश्व के परे है।
इसी उपनिषद् में ब्रह्म को सर्वव्यापी, कर्मों का नियन्ता साक्षी, चैतन्य, अद्वितीय और निर्गुण कहा गया है
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