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आध्यात्मिक तत्त्व है। ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञानुष्ठान ती कर्मकाण्ड को महत्व दिया गया है। आरण्यक ग्रन्थों में दार्शनिक विचार एवं ज्ञानकाण्ड को महत्वपूर्ण माना गया है। भेद होते हुये भी अभेद मुख्य रूप से है क्योंकि ब्राह्मण ग्रन्थों में केवल कर्मकाण्ड का ही अनुष्ठान नहीं है और आरण्यकों में यज्ञ के अनुष्ठान को निषिद्ध नहीं बतलाया गया है अतः दोनों में अधिक भेद नहीं है। वेद के कर्मकाण्डीय ग्रन्थ बतलाते हैं कि कुछ कृत्य एवं पाठ ग्राम के बाहर वन में ही अनुष्ठेय हैं परन्तु ऐसे पाठ एवं कृत्य केवल आरण्यकों में ही नहीं अपितु संहिता तक में वर्तमान है।
ऋग्वेद के दो आरण्यक ग्रन्थ प्राप्त होते हैं १-ऐतरेय और शांखायन। शुक्ल यजुर्वेद का कोई आरण्यक नहीं प्राप्त होता है। कृष्ण यजुर्वेद के दो आरण्यक मिलते हैं १-तैत्तिरीय आरण्यक, २-मैत्रायिणी आरण्यक ।
सामवेद के भी दो आरण्यक् १- तवल्कार और २-छान्दोग्य प्राप्त होते हैं। अथर्ववेद का कोई भी आरण्यक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। उपनिषदों का दर्शन
उपनिषद (संक्षिप्त परिचय)- उपनिषद् वेद के अन्तिम भाग होते हैं इसलिये इन्हें 'वेदान्त' भी कहा जाता है। उपनिषदों में आध्यात्मिक विद्या के गूढतम रहस्यों का विशद विवेचन किया गया है। हिन्दू दर्शन में तीन प्रस्थान ग्रन्थ हैं- उपनिषद्, गीता, ब्रह्मसूत्र। इसी प्रस्थानत्रयी पर भारतीय वैदिकधर्म तथा दर्शन अवलम्बित है परन्तु गीता तथा ब्रह्मसूत्र के उपनिषदों पर आश्रित होने के कारण उपनिषदों का महत्व सबसे अधिक है।
"उपनिषद' शब्द 'उप' तथा 'नि' उपसर्ग 'सद्' धातु से 'क्विप' प्रत्यय जोड़ने पर निष्पन्न हुआ है। 'सद' का एक अर्थ 'बैठना होता है अर्थात "शिष्य का गुरू के निकट
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