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एक ही दर्शन के सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पहलू हैं। दोनों ही दर्शन में अभिन्नता है । इसकी अभिन्नता का प्रमाण इससे भी स्पष्ट होता है कि योग सूत्र के भाष्यकार व्यास नें अपनें भाष्य का नाम "सांख्यप्रवचन भाष्य" रखा । श्रीमद्भगवद्गीता भी अपने को योगशास्त्र की संज्ञा देती है तथा जीवन के अभ्युदय के लिये सांख्य तथा योग को आधार लेना आवश्यक बताती है ।
"लोकेऽस्मिन द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघः ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।।"
यद्यपि गीता में प्रयुक्त 'सांख्य' और 'योग' शब्द को सांख्यदर्शन और पातञ्जल दर्शन में एकदम सटीक पयार्यवाची नहीं मानते हैं । किन्तु आन्तरिक हावभाव सांख्य और योग का गीता से मिलता-जुलता है। कुछ विद्वानों का मन्तव्य है कि सांख्य और योग दोनों उस पुरातन काल में एक ही दर्शन के सम्मिलित नाम थे । अन्तर मात्र इतना था कि यदि एक तत्वसिद्धान्त था तो दूसरा उस सिद्धान्त को साक्षात्कार करने का साधन पथ था|सांख्य और योग की अभिन्नता का प्रतिपादन गीता में बहुत ही सुन्दर ढंग से किया गया है
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमाप्यास्थितः सम्युगुभयोर्विन्दते फलम् ।। (श्रीमद्भगवतगीता ५ / ४) इसके (श्रीमद्भगवतगीता ) पांचवे अध्याय के पांचवे श्लोक में कहा गया है'यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति । । ( श्रीमद्भगवतगीता ५/५)
सांख्य दर्शन के द्वारा स्वीकृत २५ तत्वों को योग भी स्वीकार करता है किन्तु योग सांख्य से हटकर २६वां तत्व 'ईश्वर' को मानता है इसलिये इसे 'सेश्वरसांख्य' भी कहते हैं । किन्तु ईश्वर को अतिरिक्त तत्व न मानकर 'पुरुषतत्व' में ही समाहित किया
* कपिलोनामविष्णोरवतारविशेषः प्रसिद्ध. स्वयंभूहिरण्यगर्भस्तस्यापि सांख्ययोगप्राप्तिर्वेदे श्रूयते । स एतेश्वर आदि विद्वान विष्णुः स्वयंभूरितभावः (त० वैशा० १६२५)
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