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विवृद्धि निमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य। पुरूष विमोक्ष निमित्तं तथा प्रवृत्ति प्रधानस्य ।।"
जिस प्रकार दूध अचेतन होते हुये बछड़े के पालन के निमित्त गाय के स्तन से स्वयं प्रवाहित होने लगता है उसी प्रकार पुरूष जीव के भोग और मोक्ष के लिये प्रकृति जगत् की रचना में स्वयं व्याप्त होती रहती है। इस प्रकार पंबन्ध्ववत् प्रकृति-पुरूष संयोग होने पर प्रकृति से महत् (बुद्धि) का आर्विभाव होता है यह अचेतन होती है किन्तु पुरूष के प्रतिबिम्ब से प्रतिबिम्बित होकर चेतनवती सी हो जाती है और अध्यवसाय बुद्धि का लक्षण है। फिर महत् तत्व से अहंकार और एतद्नन्तर अहंकार से षोडश्समुच्चय उत्पन्न होता है। अर्थात् अहंकार के सात्विक अंश से एकादश इन्द्रियां उद्भूत होती है
और तमोगुण के प्रधान अंश से पञ्चतन्मात्राएं उद्भूत होती है फिर इन तन्मात्राओं से पंचमहाभूत उत्पन्न होता है। जैसा कि सां० कारिका कार ने लिखा है
"प्रकृतेर्महास्ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्च षोऽशकः ।
तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि।। २२।।" सृष्टिक्रम विकासवाद को तालिका से इस प्रकार दिखाय जा सकता है
प्रकृति-पुरूष
महत् (बुद्धि)
अहंकार
सात्विक
राजसिक
तामसिक
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